मैडेगास्कर-द्वीप के मूल निवासी / 431 दिया जाता है । दैवात् यदि वह पशु बच्चे को नहीं कुचलता तो समझा जाता है कि बच्चा सुलक्षणी है, मार डालने की जरूरत नहीं। तब बच्चे के घर वाले उसे उठा लाते हैं और आनन्द मनाते हैं । यदि पशु ने उसे कुचल दिया और वह मर गया तो माता उसे कपड़े से ढक कर एक नई हाँडी में रख देती है और उस हाँडी को जमीन मे गाड़ देती है। सुलक्षण-संयुक्त बच्चा जन्म के बाद सातवें दिन घर से बाहर निकाला जाता है। फिर उसे माता-पिता किमी अहीर के यहाँ ले जाते है । अहीर से मतलब उम सकाकवा से है जिसके यहाँ पशु बहुत होते हैं। वहाँ पर अहीर, और कही कही बच्चे का पिता, बच्चे को सम्बोधन करके कहता है-"तुम्हाग व्रत या व्यवसाय गोपालन हो । तुम खूब धनवान् हो । तुम बहुत से बाल-बच्चे वाले हो।" इस रस्म के अदा हो जाने पर, माता- पिता बच्चे को लेकर अपने घर लौट आते है । इसके कुछ ही समय पीछे बच्चे का नाम- करण-संस्कार होता है । बच्चो के नाम उनकी भाषा में, मदा उनकी आकृति के अनुसार, रक्वे जाते हैं । यथा-गौरकाय, श्याम मूर्ति, चिपिटाक्ष, दीर्घनाम, लम्बोष्ठ, लोलजिह्व, शूर्प-कर्ण, कम्बुकण्ठ, उन्नतोदर आदि । सन्ततिमती मातायें जब कही बाहर जाती है तब बच्चों को कपड़े से पीठ पर बाँध लेती हैं। कभी कभी ऐसा दृश्य देखने को मिलता है कि स्त्री अपने मिर पर तो जल से भग हुआ एक बड़ा मा घड़ा रक्खे है और पीठ पर छः सात वर्ष का एक बच्चा भी लादे है। मकालवा जाति के बच्चे अपनी माता से पहले पहल जो शब्द सीखते है उनका अर्थ है कि अपने साथ हमें भी ले चलो। इन लोगों की स्त्रियाँ, भारतीय स्त्रियों की तरह, कभी बेकार नही बैठती। भोजन तैयार करने के बाद या तो वे धान कूटती है या मूत कातती, कपड़ा बुनती, अथवा टोपी, खाट, मचिया, टोकरी आदि बनाती है। कभी कभी खेती के काम में वे अपने पतियों की मदद भी करती हैं । मैडेगास्कर के मूल निवासी नाचना बहुत पसन्द करते हैं । आमोद-प्रमोद में स्त्री-पुरुष सभी शरीक होते हैं । परन्तु अँगरेज़ो की तरह वे इकट्ठे नही नाचते । नाचने के ममय पैर बहुत नहीं हिलाते, हाथो का संचालन ही अधिक करते है । बहुत समय से मैडेगास्कर में स्त्रियाँ ही शासन करती हैं। जिम समय जो रानी होती है उस समय वह अपने लिए एक नया ही राज-भवन निर्माण कराती है। राजप्रासाद एक छोटी-सी पहाड़ी पर बनाया जाता है। बनावट में वह साधारण घरो ही की तरह होता है । पर, हाँ, कुछ बडा अवश्य होता है और उसमें कुछ गजसी ठाट के सामान भी होते हैं। किसी समय इस टापू में मूर्तिपूजा प्रचलित थी। नाना प्रकार की मूर्तियाँ पूजी जाती थीं। उनमें एक मूर्ति सर्वश्रेष्ठ मानी जाती थी । उत्सव के दिन लोग उसे लोहे के एक अद्भुत वर्म किंवा जालीदार वस्त्र ढक कर जगह जगह घुमाते थे। मूर्ति के आगे आगे एक आदमी, भीड़ को हटाता हुआ, दौड़ता था। सकालवा लोगों का विश्वास था कि मूर्तियों की प्रसन्नता और सन्तुष्टि पर ही देश का मंगल अवलम्बित है। इस कराल कलिकाल में ईसाई धर्म-प्रचारकों को यदि सर्वव्यापक कहें तो भी -
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