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पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/४४०

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436/ महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली या जादू करके बच्चों की जान ले ली है। कुछ लोग उठे और चुपचाप उस बूढ़े को पास की पहाड़ी की सबसे ऊंची चोटी पर ले गये । इस घटना के बाद फिर उस बेचारे का कुछ भी पता न चला कि वह कहाँ गया। उसकी क्या दशा हुई, यह बताने की ज़रूरत नही। वह तो स्पष्ट ही है। यदि कोई अन्य देशवासी इन लोगों का फ़ोटो लेना चाहता है तो ये लोग कैमरे को भूत समझ कर मारे डर के कांपने लगते हैं । बस कैमरा निकला कि मिशमी हिरन हो गया। मिशमी लोग अच्छे शिकारी होते हैं। इनका सबसे प्रधान शस्त्रास्त्र धनुर्बाण है। पुराने जमाने की तोड़ेदार (Muzzle loading) बन्दूकें भी कहीं कहीं किसी किसी के पास पाई जाती है। परन्तु वे सिर्फ शोभा के लिए हैं। शिकार का काम उनसे नही लिया जाता। बड़े शिकार के लिए ये लोग विषाक्त बाण और छोटे के लिए बाँस के त्रिशूलमुखी बाण और दांव काम में लाते हैं । कुत्तों की सहायता से भी ये लोग शिकार खेलते हैं। खेतीबारी के काम में मिशमी लोग निपुण नही । जोतने बोने के लिए जितनी जमीन दरकार होती है उतनी पर उगा हुआ जंगल काट डाला जाता है । सम्बने पर कटे हुए पेड़ों और झाड़ियों में आग लगा दी जाती है । बस खेती के लिए वेन तैयार किया जाता है। उसी में जो कुछ इन्हें बोना होता है बो देते है। खाने-पीने अर्थात् भक्ष्याभक्ष्य का ज़रा भी विचार इन लोगो में नहीं। मेढक, चूहे, साँप, छिपकली इत्यादि मभी जीव-जन्तु इनकी खूगक है । बनिज-व्यापार का नामो-निशान तक मिशमियों के देश में नही । इन लोगो की आवश्यकतायें बहुत ही कम हैं । अपने ही देश की उपज से इनका काम निकल जाता है । हाँ, तिब्बती आदमियो के साथ कभी कभी कुछ यों ही सा लेन-देन ये लोग कर लेते है । सोने को यहां कोई नहीं जानता । पर रुपये को मव लोग पहचानते हैं। [नवम्बर, 1926 में प्रकाशित । 'पुरातत्त्व-प्रसंग' मे संकलित ।]