पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/४४७

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परिशिष्ट भारतवर्ष का वैदेशिक संसर्ग अनेक विद्वानों का मत है कि संसार के अन्य देशों के साथ सम्बन्ध न्याग देने और संसर्ग न रखने के कारण भारतवर्ष की जो हानि हुई है वह बहुत बड़ी है। इसकी अवनति का यह एक प्रधान कारण है। कोई भी देश अन्य उन्नत देशो के माथ सम्पर्क रक्खे बिना उन्नति नही कर सकता। भारतवर्ष भी इस नियम के बाहर नहीं। अतएव भारतवासी यदि अवनति के गढे से निकल कर उन्नति के शिखर पर चढना चाहते हैं तो उन्हे भी, जापानियों की तरह संसार के सम्पूर्ण मभ्य और उन्नत देशों के साथ सम्बन्ध स्थापित करना चाहिए । इसी में भारतवर्ष का कल्याण है। जब तक भारतवामी इस ओर ध्यान न ढेगे तब तक वास्तविक उन्नति होना दुष्कर है । कारण यह है कि ऊँट जब तक पहाड के नीचे नही जाता तब तक वह अपने को सबसे बड़ा समझता है। यही हाल आज-कल भारतवासियों का है। वे कूप-मण्डूक की तरह अपने देश की चहारदीवारी के अन्दर बैठे हुए सदा यही सोचा करते है कि 'हम चनां दीगरे नेस्त' । परन्तु यह उनकी भूल है। यदि वे अपना घर छोड़कर बाहर निकलें और यूरप के मैदानो की हवा खायें तो उन्हें मालूम हो जाय कि वे कैसी अध:पतित अवस्था को प्राप्त हो रहे हैं। इसमें उन्हें अपनी अवनति और यूरोपियन जातियों की उन्नति के कारण भी ज्ञात हो जायंगे तथा अवनतिकारक कारणो को त्यागने और उन्नतिकारक उपायों को ग्रहण करने की ओर भी उनकी प्रवृत्ति होगी। इस प्रकार वैदेशिक संसर्ग से अनेक लाभ हो सकते हैं । यही अनेक विद्वानो का मत है । परन्तु वे उपाय कौन से हैं जिनको अवलम्बन करके भारत- बासी विदेशियों से-विशेषकर यूरोपियनो से-सम्बन्ध स्थापित कर सकते है, उनसे शिक्षायें ग्रहण कर सकते हैं और अपनी उन्नति कर सकते हैं ? इन बातो का विचार लाला हरदयाल, एम० ए०, अध्यापक, स्टेनफर्ड विश्वविद्यालय, अमेरिका ने 'माडर्न रिव्यू' नाम मासिक पत्र में प्रकाशित अपने एक लेख में अच्छी तरह किया है। उसमें उन्होने वैदेशिक संसर्ग से लाभ उठाने के जो चार उपायें बताये हैं वे नीचे दिये जाते हैं । (1) विदेशी भाषायें सीखना : अब तक अधिकांश भारतवासी विदेशी भाषाओं में केवल अंगरेज़ी ही सीखते हैं । यद्यपि इससे उन्हें बहुत लाभ हुआ तथापि वह यथेष्ट नहीं। अब अकेले अंगरेजी सीखने से काम न चलेगा। देश के नवयुवकों को चाहिए कि अब वे अंगरेजी के साथ साथ जर्मन, फ्रेंच, इटैलियन, स्पेनिश आदि अन्य यूरोपियन भाषायें भी सीखें। कारण यह कि इन भाषाओं का साहित्य अंगरेजी साहित्य की अपेक्षा बहुत बड़ा चढ़ा है । फ्रेंच, जर्मन आदि भाषाओं में जैसे उत्तमोत्तम और मौलिक ग्रन्थ