पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/४५७

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यूरोप के इतिहास से सीखने योग्य बातें /453 की प्राचीन विद्या बहुत समय तक संस्कृत भाषा तथा उस भाषा के जानने वाले कुछ पण्डितों ही के अधीन बनी रही। ईश्वर, धर्म, नीति, न्याय, लोकव्यवहार, राज्यपद्धति इत्यादि विषयों की बातें एक तिशिष्ट जाति के ही कब्जे में रही। इसका परिणाम वही हुआ जो यूरोप में हुआ था-अर्थात् मर्वमाधारण लोगों की स्वतन्त्र विचारशक्ति नष्ट हो गई । वे लोग परम्परागत कृत्रिम कल्पना-जाल में फँम गये। देश की यह निकृष्ट दशा देवकर विचारशील, अनुभवी और ज्ञानवान् साधु-सन्तो को दया आई और सूरदाम, तुलसीदास, कबीरदास, ज्ञानदेव, एकनाथ. रामदास, तुकाराम, नानक, चैतन्य आदि महानुभावो ने देशी भाषाओं के द्वारा यथार्थ ज्ञान का प्रचार आरम्भ कर दिया। उन महात्माओं के यत्न सफल होने का समय समीप आ रहा था कि इतने में कालचक्र की गति से इस देश में अँगरेजी राज्य हो गया। तब से इस देश में विद्या के पुनरुज्जीवन ने और भी अधिक जोर पकडा है । यूरोप मे धर्म, नीति, विज्ञान, लोकव्यवहार, न्याय, राज्यपद्धति इत्यादि विषयों के यथार्थ ज्ञान की दिन दिन उन्नति और जागृति हो रही है। उम यथार्थ ज्ञान के प्रकाश से इस देश का बहुत समय का अज्ञानरूप आवरण हटता चला जा रहा है। इस प्रकार विद्या के पुनरुज्जीवन से, वर्तमान समय में, यहाँ जो विचार- परिवर्तन हो रहा है उमको हमारे विकास का पूर्वलक्षण कहना चाहिए । यदि विद्या के पुनरुज्जीवन का पवित्र कार्य और भी अधिक जोर से जारी रहे तो, सम्भव है, भारत की काया बहुत शीघ्र पलट जायगी और उसमें नूतन जीवन का प्रवेश हो जायगा। इस विषय के सम्बन्ध में एक महत्त्व की वात ध्यान में रखने योग्य है। यूरोप के धर्माधिकारियों के हाथ में, अपरिमित सत्ता थी । विद्या का पुनरुज्जीवन होते ही जो लोग धर्मस्वातन्त्र्य का अवलम्बन करने, या किसी प्रकार स्वतन्त्र विचार प्रकट करने लगे थे उन्हें उक्त धर्माधिकारियों ने बहुत कष्ट दिया, बहुत सताया, यहाँ तक कि मृत्यु की कड़ी सजा भी । नूतन विचार वालों के ग्रन्थ अग्नि में जला दिये जाते थे । स्वतन्त्र मतवादियों के दल के दल पकड़कर प्रज्वलित अग्निकुण्ड में हवन कर दिये जाते थे। यूरोप में व्यक्ति-विषयक बुद्धि की स्वाधीनता स्वयं विचार करने और स्वसम्मत पथ का स्वीकार करने की स्वतन्त्रता-स्थापित करने के कार्य में जिन लोगों का बलिदान दिया गया और जिन लोगों को स्वजन, स्वदेश आदि का त्याग करना पड़ा उनके पवित्र चरित्र इतिहास में प्रसिद्ध हैं । मोचना चाहिए कि यूरोप में, अज्ञान तथा अविद्या का नाश करने और यथार्थ ज्ञान का प्रचार करने के लिए, स्वाधीन मतवादियों ने अपने देश के धर्माधिकारियों और राजकर्ताओं की प्रबल तथा कठोर सत्ता की रत्ती भर परवा न करके उन लोगो ने अपने प्राण तक अर्पण कर दिये ! परन्तु हमारे देश में विद्या के पुनरुज्जीवन का मार्ग इतना भयंकर और क्लेशदायक नहीं है। हां, दो तीन सौ वर्ष पहले जिन साधु-सन्तों ने देशी भाषा में यथार्थ ज्ञान के प्रचार का प्रयल किया उन महानुभावों को अपने समय के अहंकारी तथा स्वयं प्रतिष्ठित पण्डितों और कोरे नाम- धारी ब्राह्मणों से अवश्य कुछ अपमान और दुःख सहना पड़ा था। परन्तु वर्तमान समय में तो विद्योन्नति के मार्ग और स्वतन्त्र विचार तथा यथार्थ ज्ञान के दरवाजे सब लोगों के लिए खुले पड़े हैं। पूर्वी और पश्चिमी विद्या का सम्मेलन बेखटके जारी हो गया है।