पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/४५८

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454 / महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली व्यक्तिगत स्वाधीनता का मार्ग निष्कंटक देख पड़ता है। हमारे धर्माधिकारियों के हाथ में कठोर दण्ड देने की कुछ भी सत्ता नहीं है। उन लोगों ने यूरोप की तरह ऐसी राक्षसी न्यायसभा कभी स्थापित नहीं की जिसके द्वारा धर्मस्वातन्त्र्य का अवलम्ब करने वालों को अग्नि में जलाने, समुद्र में डुबोने और देश से निकाल देने का भयानक दण्ड दिया जाय । विद्या की उन्नति, धर्म की जागृति और यथार्थ ज्ञान के प्रचार में, इस समय, गजकर्तृक दण्ड के भय का तो नाम तक नहीं। इस प्रकार सब बातों की अनुकूलता होने पर भी हम लोग देशोन्नति के मार्ग में अपना क़दम आगे क्यों नहीं बढ़ाते ? विद्या के पुनरूज्जीवन, धर्म की जागृति, यथार्थ ज्ञान के प्रचार या देशोन्नति के कार्य में, यूरप की तरह, स्वार्थत्याग के उदाहरण यहाँ क्यों नहीं देख पड़ते ? इसके बदले यहाँ ऐसे लोगों की संख्या अधिक क्यों देख पड़ती है जो परम्परागत कृत्रिम और हानिकारक विचार- बन्धनों ही की रक्षा करने में अपना गौरव मानते हैं ? आश्चर्य और खेद की बात है कि इम देश के अनेक युवक, अपनी बुद्धि को पूर्वी तथा पश्चिमी विद्याओं से सुसंस्कृत कर लेने पर भी, गतानुगतिकत्व के दास बन जाते हैं-पुरानी लकीर के फ़क़ीर बने रहते है और अज जन-समाज को प्रसन्न करने के लिए सारे देश को अविद्या तथा अज्ञान के मोहन जाल में फंसा रखते हैं ! ज्यों ही लोकोन्नति का कदम कुछ आगे बढ़ता है त्यो ही ये लोग उसकी टांग पकड़कर उसको पीछे की ओर घसीटने लगते है ! ऊपर युग्प और हिन्दुस्तान में, विद्या के पुनरुज्जीवन और लोकोन्नति के विषय में, जो अत्यन्त महत्त्व का भेद बताया गया है उससे हम लोग बहुत सी बाने मीख सकते हैं । सबसे पहले हमको यह जानना उचित है कि इस भेद का कारण क्या है ? विद्या के पुनरुज्जीवन का आरम्भ होते ही यूरप में जैमी लोकोन्नति होने लगी वैसी इस देश में क्यों नहीं देग्न पडती ? मननशील पाठकों के लिए यह सूचित कर देना अनुचिन न होगा कि उक्त भेद का प्रधान कारण हमारी मानसिक दुर्बलता ही है । इसके अतिरिक्त दृढ़ निश्चय, उत्साह, धैर्य स्वदेशाभिमान इत्यादि सद्गुणों का अभाव और स्वार्थप गयणता, द्वेष, मत्सर, अमहिष्णुता इत्यादि दुर्गुणों का अस्तित्व भी विशेष कारणों मे गिना जा मरता है। इस विषय की अधिक चर्चा करने की आवश्यकता नही है । माम्मिक जन इस अल्प सूचना ही से बहुत कुछ शिक्षा प्राप्त कर सकते है । [3] इंगलैंड में राज्यक्रान्ति सत्रहवी सदी में इंगलैंड में जो राज्य-क्रान्ति हुई उससे हमें दृढ़ निश्चय और कर्तव्यनिष्ठा आदि की मिलती है। विद्या के पुनरुज्जीवन से अँगरेज लोगों में स्वयं विचार करने की शक्ति और अपनी समझ के अनुसार आचरण करने की दृढ़ता उत्पन्न हो गई थी। इसका परिणाम यह हुआ कि बहुतेरे अँगरेजों ने प्राचीन धर्म के परम्परागत और कृत्रिम बन्धनों का त्याग कर दिया और धर्म के नूतन तत्वों को स्वीकार किया। वे लोग