पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/४७७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

यूरोप के इतिहास से सीखने योग्य बातें / 473 उनके बदले ऐसी नई संस्थायें स्थापित करने का यत्न किया जो राष्ट्रीय उच्च भावो के अनुकूल थीं। यहाँ तक तो उनका काम सहज था; परन्तु जब वे लोग प्रत्यक्ष व्यवहार- भूमि पर खड़े होकर, अपनी स्थापित नई संस्थाओं के द्वारा, राष्ट्रीय उच्च भावों के अनुसार, कार्य करने लगे तब वे अत्यन्त घृणास्पद गति से भग्नमनोरथ हुए । इस बात का यथार्थ बोध होने के लिए राज्यक्रान्तिकारको के मुख्य मुख्य उद्देशों और उनकी कुछ कारग्वाइयो की आलोचना करना आवश्यक है। (अ) सामाजिक समता -मुख से इस बात का उच्चार करना सहज काम था कि सब मनुष्य न्याय और कानून की दृष्टि में ममान हैं, न कोई बड़ा है न कोई छोटा । सब लोगो के स्वाभाविक हक़ समान हैं-उनमें किसी प्रकार का कृत्रिम भेद न होना चाहिए। इसमें सन्देह नहीं कि ग़रीब आदमियों की दुर्दशा और दरिद्रावस्था देखकर परोपकाररत पुरुषों के हृदय में दया उत्पन्न हो जाती है । इमी भूतदया के अधीन होकर फ्रांस के क्रान्नि- कारको ने गरीब आदमियो की दशा सुधारने का यत्न किया । परन्तु जिन उपायो का अवलम्ब किया गया उनसे लाभ के बदले हानि ही अधिक हुई । गरीबों की रक्षा के लिए बड़े-बड़े मरदारों, रईमो, जमीदारो और धर्माधिकारियो की सारी जायदाद जब्त कर ली गई । परन्तु यह लट का माल कब तक काम आता ? धनी दरिद्र हो गये और दरिद्र तो जन्म ही से दरिद्री थे ! 'धनी और दरिद्री' यह सामाजिक विषय, वर्तमान समय में भी, यूरोप के अनेक देशों में चर्चा और सुधार का प्रधान विषय है। यद्यपि फ्रास के क्रान्तिकारकों का प्रयत्न इस विषय में सफल न हुआ और यद्यपि इस समय सुधार के अनेक उपाय सोचे जा रहे हैं, तथापि यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि केवल प्रस्ताव, नियम, कानून या सेना के ज़ोर से 'सामाजिक ममता' नही प्राप्त हो सकती । क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि जो क्रान्तिकारक लोग न्याय और समता के मन्त्र का ऊँचे स्वर से घोष कर रहे थे उन्ही लोगो ने अपने हजारों देश भाइयों को, बिना जांच के, फांसी पर चढा दिया | इन क्रान्तिकारकों की असफलता से केवल यूरोप ही को नही, किन्तु मारी मानव-जाति को शिक्षा लेनी चाहिए । (आ) नियम-निर्दिष्ट स्वाधीनता-राज्यक्रान्तिकारको का यह दूसरा मन्त्र था। उन लोगो का यह उद्देश था कि प्रत्येक व्यक्ति स्वाधीन हो। तात्त्विक दृष्टि से देखा जाय तो मालूम होगा कि प्रत्येक व्यक्ति स्वभाव ही से स्वाधीन है. अतएव उसकी नियमित स्वाधीनता को रोकने के लिए किसी प्रकार की कृत्रिम रुकावट न होनी चाहिए । परन्तु नियम, व्यवस्था और कानून के साथ साथ इस तात्त्विक स्वाधीनता का मेल कैसे किया जाय -यही बात बहुत कठिन है । कठिन ही नहीं; किन्तु आज तक दुनिया में जितने प्रयत्न किये गये है उनके इतिहास से सिद्ध होता है कि यह कार्य असम्भव सा है। किसी देश की सरकार व्यक्ति-स्वाधीनता के साथ कानून और व्यवस्था का उचित तथा सन्तोषदायक और सर्वमान्य मेल करने में सफल नही हुई। इसलिए, यह आश्चर्य की बात नहीं जो फ्रांस के क्रान्तिकारक अपने देश में स्वाधीनता की स्थापना कर सके। (इ) मातृभाष-यह कोई नई बात न थी। ईसाई धर्म के अनुसार सब आदमी,