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पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/४८१

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यूरोप के इतिहास से सीखने योग्य बातें /477 आदि सात्त्विक गुणों को भूलकर, आप भी राजसी ठाठ बाट से रहने लगे। ठीक इसी तरह यूरोप में भी ईमाई धर्म के अनेक पन्थ हो गये; भिन्न भिन्न देशों मे अनेक मठ स्थापित किये गये और राजा तथा प्रजा के दान से मठाधिपति इतने श्रीमान्, स्वतन्त्र और अधिकार-सम्पन्न हो गये कि वे लोग राज-काज में भी हाथ डालने लगे। इन मठाधिपतियों में रोमनिवासी पोप सबसे श्रेष्ठ माना जाता था, क्योंकि लोगो की ममझ थी कि रोम के मठ की गद्दी स्वयं पैग़म्बर पीटर की स्थापित की हुई है । रोम के पोप की सत्ता इतनी प्रबल हो गई थी कि वह केवल अन्य धर्माधिकारियों और मठाधि- पतियों ही पर अपना अधिकार नही चलाना था, किन्त वहिष्काररूप शस्त्र के आधार पर बड़े बडे चक्रवर्ती राजाओं पर भी वह अपनी हुकूमत चलाने लग गया था । यथार्थ में रोम का पोप एक स्वतन्त्र बादशाह ही बन बैठा था। उसके अन्याय और जुल्म से सब लोग तंग आ गये। पोप की देखादेखी अन्यान्य स्थानो के मठाधिपति, धर्माधिकारी और धर्मोपदेशक भी मनमानी करने लगे। ये लोग धर्म के नाम पर सर्वसाधारण लोगों से मनमाना धन बटोर कर अपना ऐहिक वैभव और प्रभाव बढ़ाने लगे । यदि कोई धन दे तो, पोप की ताजा मात्र से, उसके सब पापो का पालन कर दिया जाता था ! क्षेप के पापमोवक आज्ञापत्र, बहुमूल्य पदार्थों के समान, अनेक धर्मोपदेशकों द्वारा बेचे जाते थे | धर्मसम्बन्धी विधियो और संस्कारो के ममय ग्रीक, लैटिन, हीब्रू आदि प्राचीन भाषाओं का उपयोग किया जाता था, जिनसे पढने और सुनने वालों को अर्थ का कुछ भी बोध न होता था । यदि कोई धाम्मिक बातो का कुछ परिवर्तन करने का यत्न करता तो पोप और उसके धर्माधिकारियों की ओर से कड़ी सजा दी जाती थी। इसका परिणाम यह हुआ कि देश देश के राजा और विचारवान् लोग यह सोचने लगे कि हम पोप तथा उसके धर्माधिकारियो के दासत्व से कैसे मुक्त हो । धीरे-धीरे इस धाम्मिक अन्याय और दासत्व के विषय में चारो ओर चर्चा होने लगी। कई देशो के राजाओ ने अपने को पोप की मत्ता से अलग कर लिया। इंगलैड के गजा आठवें हेनरी न अपनी रानी केथराइन का त्याग कर दिया था और वह इस बात के लिए पोप की सम्मति लेना चाहता था; परन्तु जब पोप ने सम्मति न दी तब राजा ने उस समय के धर्माधिकारियों की कुछ भी परवा न की और स्वतन्त्रतापूर्वक दूसरी स्त्री के साथ विवाह कर लिया। इस प्रकार यद्यपि गजा लोग और कुछ बड़े बड़े सरदार पोप की सत्ता से स्वतन्त्र होते चले जा रहे थे, तथापि उन लोगो का ध्यान धाम्मिक सुधार या परिवर्तन की ओर नही था। वे लोग धाम्मिक परिवर्तन करने की अपेक्षा स्वयं स्वतन्त्र हो जाने-पोप या उसके किसी धर्माधिकारी की अधीनता में न रहने-ही का अधिक यत्न कर रहे थे । यथार्थ में धाम्मिक परिवर्तन का पवित्र कार्य्य योरप में मध्यम श्रेणी के विचारवान् तथा सर्वसाधारण लोगों ही ने मिल कर किया। उन लोगो को, इस कार्य में, राजाओं तथा बड़े आदमियों की न तो सहायता ही मिली और न सहानुभूति ही मिली। इसके बदले उन लोगों को राजाओं तथा उनके अधिकारियों की अन्यायभित सत्ता का कठिन सामना करना पड़ा। सोलहवीं सदी में जिन विचारवान् और धैर्यधारी लोगों ने ईसाई धर्म में अद्भुत