पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/४८०

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.476/ महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली के प्रायः सभी देशों का जन-समाज धर्म के नाम पर अनीति, अन्याय और पराधीनता से पीड़ित होने लगा; ईसाई धर्म का शुद्ध स्वरूप बदलने लगा; बुद्धि व्यवहार तथा राजनीति-सम्बन्धिनी स्वाधीनता का संकोच होने लगा और देशोन्नति का प्रवाह बन्द हो गया। ईसाई धर्म के नाम पर बड़े बड़े भयानक युद्ध हुए और खून की नदियाँ बह निकलीं । स्वाधीन स्वभाव के कितने ही मनुष्य क़तल किये गये, पानी में डुबो कर मार डाले गये, अग्नि में जला दिये गये या अन्य उपायों से पीड़ित किये जाने पर देश से निकाल दिये गये ! सारांश यह कि प्रथम धाम्मिक परिवर्तन के बाद, कुछ समय तक, योरप में अज्ञान, अनीति, अन्याय और अनाचार का पूरा साम्राज्य स्थापित हो गया । इसी को, इतिहास में 'अज्ञानमय मध्ययुग' (Dark Middle Ages) कहते हैं। तब लोगों को दूसरी बार धाम्मिक परिवर्तन करने की आवश्यकता मालूम हुई । इस परिवर्तन का वर्णन करने के पहले, कुछ देर के लिए, अपने देश पर एक नजर डालिए । हमारे देश में भी, बहुत प्राचीन समय में, शुद्ध धर्म-जान का उदय हुआ था। वरुण, याज्ञवल्क्य, अथर्वा, सनत्कुमार, नाग्द, व्यास, मनु आदि बड़े बड़े महात्माओं और जानियों ने आध्यात्मिक विचार, धर्म, नीति और अत्याचार के शुद्ध तत्त्वों का उपदेश, समय समय पर, कर रक्खा है । परन्तु जिस तरह यूरोप में धर्म का वास्तविक स्वरूप अज्ञान के आवरण से आच्छादित हो गया था और सत्य ज्ञान का लोप हो गया था, उमी तरह हिन्दुस्तान में भी बहुत दिनों से अज्ञान का आवरण बढ़ता जा रहा है और धर्म, नीति, मदाचार, विचार-स्वातन्त्र्य तथा शील का लोप हो रहा है। वर्तमान समय में तो धर्म के नाम पर केवल तान्त्रिक और औपचारिक विधियां जारी हैं, अनेक भ्रममूलक तथा भ्रमोत्पादक आचार प्रचलित हैं, शाब्दिक आडम्बर और वेदान्त की कोरी बातें (अनुभव- रहित) देख पड़ती हैं और स्वार्थपरायणता की नीति से हमारा शील भी दूषित हो गया है। विचार-स्वातंत्र्य के विषय में तो कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं है । राजनैतिक विषयो की बात, इस समय, एक तरफ़ रहने दीजिए; किन्तु अपनी सामाजिक दशा, लोक- व्यवहार, गृहस्थिति और व्यक्तिगत आचरण की ओर ध्यान देकर देखिए । आपको मालूम हो जाएगा कि हम लोग धर्म के नाम पर, कैसे अज्ञानमूलक और अविचारमूलक कृत्रिम बन्धनों में बंधे हुए है। ज्ञान, विचार और समय अनुसार कुछ भी परिवर्तन करने का साहस हम लोगों में देख ही नहीं पड़ता। हम लोग अपनी पुरानी ही (और विगड़ी हुई) लीक पीटते चले जा रहे हैं । यदि हम लोग यूरोप के धाम्मिक परिवर्तन के इतिहास का मननपूर्वक अभ्याम करे तो आशा और विश्वास है कि सीखने योग्य अनेक वाने मालूम होंगी। अस्तु । अब उसी विषय का वर्णन किया जायगा । हमारे यहाँ एक सनातन धर्म मे अनेक मत, पन्य और सम्प्रदाय हो गये; भिन्न भिन्न स्थानों में भिन्न भिन्न मतप्रवर्तक आचार्यों के मठ स्थापित किये गये; उन मतो के अनुसार लोगों पर धर्म का अधिकार जमाने के लिए केवल गुरु-शिष्य परम्परा से अनेक नामधारी आचार्य बनने लगे; इन नामधारी आचार्यों और महन्तों ने बड़े बड़े राजाओं महाराजाओं से दान लेकर अपनी गद्दी के नाम पर बड़ी बड़ी रियासतें और जमींदारियाँ प्राप्त कर लीं; और, अन्त में, मूल आचाम्यों की धर्मश्रा, निस्पृहता, वैराग्य, परोपकार