पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/४९

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सुमात्रा और जावा आदि द्वीपों में प्राचीन हिन्दू-सभ्यता /45 शायद जयविष्णुद्धिनी रानी के अनन्तर राजासन प्राप्त करने वाले हेमऊरुफ नामक राजा के राज्यकाल में, सफल हुआ । इसी समय (शक 1269) का एक शिलालेय मिला है। वह आदित्यवर्मा का है। वह सुमात्रा का राजा था। उससे सिद्ध है कि यह राजा तान्त्रिक-सम्प्रदाय का बद्धौ था ! नगरकृतागम के कर्ता प्रपंच पण्डिन ने भी अपने ग्रन्थ में लिखा है कि उस समय वहाँ तान्त्रिक क्रियाओं का बड़ा जोर था। सुमात्रा और जावा दोनों ही में तान्त्रिको का आधिक्य होते होते हिन्दू और बौद्ध दोनो धर्मों की जड़ में घुन लग गया। फल यह हुआ कि कालान्तर में, इन द्वीपो में, मुनलमानी धर्म के प्रचार के लिए मैदान साफ़ होता गया। माजापिहित की रानी जयविष्णुद्धिनी राजासन पर इम कारण बैठी थी कि उसका पुत्र हेमऊम्फ अल्पवयस्क था। 1350 ईसवी मे वह वयस्क हुआ और गद्दी पर बैठा । गजमद ही उसका प्रधान मन्त्री बना रहा। इस गजा के राज्य-काल में गजमद के पराक्रम और चातुर्य के प्रभाव से, माजापिहित राज्य की बड़ी उन्नति हुई। दूर दूर तक के देश-न्यूगिनी तक के-इम राज्य के अन्न क्त हो गये । सुमात्रा, बोनियो और मिहपुर (मिहापुर) आदि सभी द्वीपो के अधिकारियों ने माजापिहित के अधीश्वर के मामने सिर झुकाया। वह एक प्रकार से चक्रवर्ती राजा हो गया और अपना नाम हेमऊरुफ बदल कर श्रीराजमनागर रक्खा । इस सजा ने अनेक बलशाली देशो के शासको के साथ मैत्री की भी स्थापना की । उनमे से मनमा (मर्तबान), काम्बोज, चम्पा, यवन (उत्तरी अनाम) और स्यामदेश की अयोध्या तथा राजपुरी के नरेश मुख्य थे । श्रीराजसनागर के राज्य-काल में माजापिहित राज्य उन्नति के शिखर पर पहुँच गया। दर देशो में राज्य-गासन के लिए जो सरदार या गवर्नर उसने रक्खे थे वे समय समय पर माजापिहित में उपस्थित होकर राजा की पाद-वन्दना र जाते थे। राजा ने भिन्न भिन्न महकमो के कार्यनिरीक्षण के लिए 5 मन्त्री रक्वे थे । उन्ही की सलाह से वह राज्य-संचालन करता था। उसके मन्त्री और 'भुजङ्ग' देश मे दौरे भी करते थे। भुजङ्ग एक प्रकार के धर्माध्यक्ष अथवा पुरोहित थे। वे राजकार्य भी करते और धर्म-सम्बन्धी व्यवस्था आदि भी देते थे। शैव और वौद्ध दोनो धर्मों के अध्यक्ष अलग अलग थे । राजाज्ञा का उल्लघन करने वालो को राजा के 'जलधि-मन्त्री' देते थे। - श्री राजसनागर की प्रधान महिषी का नाम षुम्नादेवी था। वह रति का अवतार मानी जाती थी। राजधानी माजापिडित बड़ा ही शोभाशाली नगर था । उसके इस यवद्वीपीय नाम का संस्कृत रूप बिल्वतिक्त अथवा तिक्त श्रीफल होता है। उसमें सुन्दर सरोवर, विशाल उद्यान, अभ्र कष प्रासाद, बड़े बड़े बाजार और मनोहर मन्त्रणागृह (वितान) थे । शैव ब्राह्मण एक तरफ़ रहते थे, बौद्ध दूसरी तरफ़ । क्षत्रियों, राज-कर्मचारियों और मन्त्रियों के रहने के स्थान भी अलग, एक ओर, थे। सर्वसाधारण- जन, विशेष करके शैव थे। उच्चपदस्थ कर्मचारी और मन्त्रिमण्डल तथा धनी मनुष्य प्रायः बौद्ध थे।