56 / महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली पता लगाना आरम्भ किया और 'शकुन्तला' नाटक को पढ़कर उसका अनुवाद अँगरेज़ी में किया। इस नाटक ने योरप के विद्यारसिक जनों की आँखें खोल दों। तब तक योरप वाले भारतवासियों को, जैसा ऊपर कहा जा चुका है, निरे जंगली समझते थे। उनका ख्याल था कि भारत में कुछ भी साहित्य नहीं है और जो कुछ है भी वह किसी काम का नहीं । तब तक योरप वालों की दृष्टि में भारतवासी अत्यन्त ही घृणा की दृष्टि से देखे जाते थे। घृणा की दृष्टि से तो वे अब भी देखे जाते है, पर अब और तब में बहुत अन्तर है। तब हम लोगो की गिनती कुछ-कुछ अफ्रीका की हाटेनटोट, पुणम्येन और जूली आदि महा असभ्य जातियों में थी और भारत की कुछ कदर यदि की जाती थी तो सिर्फ इमलिए कि उसकी बदौलत करोड़ो रूपये विलायत ले जाने को मिलते थे। पर 'शकुन्तला' को पढकर उन लोगो का यह भाव एकदम निगेहित हो गया। 'शकुन्तला' की कविता, उसके पात्रों का चरित, उमकी भाव-प्रवणता आदि देखकर वे लोग मुग्ध हो गये। 'शकुन्तला' के अंगरेज़ी अनुवाद के भी अनुवाद जर्मन और फ्रेंच आदि अनेक भापाओ में किये गये, जिन्हें पढकर तद्देशवामियो ने भी उसकी श्रेष्ठता एक स्वर से कबूल की। 'शकुन्तला' वह चीज़ है जिसकी कृपा से भारतवामी हैवान से इन्मान समझे जाने लगे--पशु से मनुष्य माने जाने लगे। अतएव भगवान् कालिदाम के हम लोग हृदय से ऋणी है। शकुन्तला से योग्पवालों को मालूम हो गया कि नाट्य विद्या में हिन्दू-मन्नान उन लोगों से यदि बढ़ी हुई नहीं है तो कम भी किसी तरह नहीं । वे यह भी जान गये कि जिम ग्रीक भाषा के साहित्य की श्रेष्ठता के वे लोग इतने कायल है, संस्कृत का साहित्य उममे भी किमी-किमी अंश में, आगे बढा हुआ है। प्राचीनता में तो संस्कृत-माहित्य की बराबरी किसी भी भाषा का माहित्य नहीं कर सकता । 'शकुन्तला' के रचना-कौशल को देखकर योरपवालो को कितना कौतूहल हुआ उसके कथानक का विचार करके उममे भी अधिक आश्चर्य हुआ। उसके कथानक का मादृश्य उन्हें एक ग्रीक कहानी में मिल गया। और जब उन लोगो ने 'विक्रमोर्वशी' देखी तब उनके कथानक की भी मदशता उन्हें ग्रीक भाषा की एक कहानी में मिली। इस पर उनलोगों के आश्चर्य की मीमा न रही। वे मोचने लगे कि क्या बात है जो इन असभ्य अथवा, अर्द्धमभ्य भारतवामियो की बाते उन पृज्यतम ग्रीक लोगों की बातों से मिलती हैं। कहीं दोनों के पुरुषो का किमी समय एकत्र वाम तो नही रहा ? यह तो माधारण आदमियो की बात हुई । भापा-शास्त्र के जानने वालो को, पुरातत्त्ववेत्ताओ को तथा पुगनी कथा-कहानियों का ज्ञान रखने वालों को तो विश्वास सा हो गया कि इस माम्य का जरूर कोई बहुत बड़ा कारण है। 'शकुन्तला' के पाठ और बंगाले की एशियाटिक सोमाइटी की स्थापना में मर विलियम जोन्म के सिवा चार्ल्स विलकिन्स और हेनरी टामम कोलब्रक आदि और भी कब अँगरेज़ विद्वानो को संस्कृताध्यन की ओर मचि हुई । नई-नई खोज होने लगी; नई-नई पुस्तकें बनने लगी। फल यह हुआ कि इन गौगंग पण्डितों को संस्कृत के संकड़ो शव्द ग्रीक आदि योरप की प्राचीन भाषाओं में प्रायः तद्वत् अथवा कुछ फेरफार के साथ मिल गये। इससे इन लोगों के आश्चर्य, कौतूहल और
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