पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/६२

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योरप में विद्वानों के संस्कृत-लेख और देवनागरी-लिपि हिन्दुस्तान में हजारों लोग ऐसे हैं जिन्होंने अँगरेज़ी जैसी क्लिष्ट और विदेशी भाषा में बड़े-बड़े गहन ग्रन्थ लिखे हैं, जो अंगरेजी के प्रतिष्ठित पत्रों और सामयिक पुस्तकों का बड़ी ही योग्यता से सम्पादन करते हैं, जो अंगरेज़ी में धारा-प्रवाह वक्तृता देते हैं और, जिन्हे अँगरेज़ी भाषा मातृभाषा ही सी हो रही है। कितने ही भारतवासियों की लिखी हुई अँगरेजी पुस्तकें विलायत तक के पुस्तक प्रकाशन बड़े ही आग्रह और उत्साह से प्रकाशित करते हैं और लेखकों को हजारों रुपया पुरस्कार भी देते हैं। इस देश के कितने ही वक्ताओं की मनोमोहनी और अविश्रान्त वाग्धारा के प्रवाह ठेठ विलायन की भूमि पर भी संकड़ों-हजारों दफ़े बहे हैं और अब भी, समय-समय पर, वहा करते हैं। हम लोगो की अंगरेज़ो को 'जाबू इंगलिश' कह कर घृणा प्रकाशित करने वाली आँखों के आमने ही ये सब दृश्य हुआ करते हैं। परन्तु आज तक इंगलिस्तान वालों मे से ऐसे कितने विद्वान हुए हैं जिन्होंने हमारी हिन्दी या संस्कृत भाषा में पुस्तकें लिखी हो, अथवा इन भाषाओ में कभी वैसी वक्तृता दी हो जैसी कि बाबू सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी या पण्डित मदनमोहन मालवीय देते है । ढूंढ़ने से शायद दो ही चार विद्वान् ऐसे निकलेंगे । विलायत वाले चाहे संस्कृत में कितने ही व्युत्पन्न क्यों न हो जायँ, पर, यदि उसके विषय में कभी कुछ कहेंगे तो अपनी ही भाषा में, लिखेंगे तो अपनी ही भाषा में, व्याख्यान देगे तो भी अपनी ही भाषा में । संस्कृत पढ़ कर ये लोग अधिकतर भाषा-विज्ञान और संस्कृत शास्त्रों के सम्बन्ध ही में लेख और पुस्तकें लिखते हैं । कोई प्राचीन पुस्तकों के अनुवाद करते हैं, कोई वैदिक माहित्य-मागर में गोता लगा कर नये-नये तत्त्वरत्न ढूंढ़ निकालते हैं; कोई साहित्य की अन्य शाखाओं का अध्ययन करके उमकी तुलनामूलक समालोचना करते हैं। परन्तु यह मक वे अपनी ही मातृभाषा में करते हैं। उन्हें संस्कृत साहित्य से सम्बन्ध रखनेवाली बाते संस्कृत ही में लिखने की आवश्यकता भी नही । संस्कृत में लिखने से कितने आदमी उनके लेख और पुस्तकें पढ़ सकें ? बहुत ही कम । और जो पढ़ भी सकें उनमें से भी बहुत ही कम भारतवासी पण्डित ऐसी पुस्तकें मोल ले सकें। शायद इसी से योग्प के मंस्कृतज्ञ मंस्कृत भाषा और देवनागिरी-लिपि में अपने विचार प्रकट करने का अभ्याम नहीं करते। अतएव यदि कोई यह कहे कि उनमें संस्कृत लिखने का माद्दा ही नहीं तो उसकी यह वात न मानी जायगी। अभ्यास से क्या नहीं हो सकता ? योरपवाले सैकड़ों काम ऐसे करते हैं जिन्हें देखकर अथवा जिनका वर्णन पढ़कर हम लोगों को अपार आश्चर्य है । अतएव अभ्यास करने से अच्छी संस्कृत लिख लेना उनके लिए कोई बड़ी वान नहीं। वह उनके लिए सर्वथा साध्य है। जो लोग भारत आते हैं और यहाँ