पृष्ठ:माधवराव सप्रे की कहानियाँ.djvu/२९

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सुभाषित-रत्न

(१)

कुठारमालिका दृष्ट्‌वा कम्पिताः सकला द्रुमाः।
वृद्धस्तरुवाचेदं स्वजातिर्नैव दृश्यते॥

किसी समय एक माली बहुत-सी कुल्हाड़ियाँ रस्सी में बाँध अपने बगीचे में गया। उसको देखते ही सब वृक्ष मारे डर के थर-थर काँपने लगे। तब उनमें से एक पुराने झाड़ ने कहा––"भाइयो! अभी से क्यों डरते हो! जब तक हम लोगों में से कोई भी बेंट, अर्थात् कुल्हाड़ी का डंडा इन कुल्हाड़ियों में शामिल न होगा, तब तक उनसे हमारा नाश नहीं हो सकता।" सच है, स्वजातीय अथवा आत्मीय जन के विश्वासघात से ही नाश होता है, अन्यथा नहीं।

(२)

गणिकागणकौ समानधर्मो
निजपञ्चाङ्गनिदर्शकावुभौ।
जनमानसमोहकारिणौ तौ
विधिना वित्तहरौ विनिर्मितौ॥

वेश्या और (कुत्सित) ज्योतिषी का बर्ताव एक ही सा जान पड़ता है। ज्योतिषी अपना पंचांग––पत्रा––दिखाता है और वेश्या भी अपने पंचांग दिखाती है। इसी प्रकार ये दोनों, लोगों के मन मोहने वाले हैं। कदाचित् ऐसा ही समझकर विधि ने इन दोनों को लोगों का द्रव्य अपहरण करने के लिए निर्माण किया है।

(३)

तीर्थानामवलोकनं परिचयः सर्वत्र वित्तार्जनं
नानाश्चर्यनिरीक्षणं चतुरता बुद्धे प्रशस्ता मिरः।