पृष्ठ:माधवराव सप्रे की कहानियाँ.djvu/३४

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एक पथिक का स्वप्न

(पहला भाग)

कंदहार के जंगल में से एक गरीब प्रवासी अकेला जा रहा था। जाते-जाते दोपहर का समय हो गया। सूर्य की गर्मी से संतप्त होकर विश्रान्ति लेने के लिए वह एक झाड़ के नीचे बैठ गया। पास ही एक छोटा-सा नाला बहता था। उसके तट पर हरी दूब देखते ही घोड़ा चरने लगा। वहाँ कई प्रकार के बड़े-बड़े वृक्ष और भाँति-भाँति की सुन्दर लताओं के कारण अति रमणीय शोभा दृष्टिगोचर होती थी। कई वृक्ष तो इतने ऊँचे दिखाई देते थे, मानो वे आकाश को भेदकर उस पार चले जाने की इच्छा कर रहे हों! जंगल इतना घना था कि सूर्य की किरणें पृथ्वी पर पहुँच नहीं सकती थीं। हाँ, कहीं-कहीं झाड़ सूखकर गिर पड़े थे और वन में रहने वालों ने कई झाड़ काट भी डाले थे। उसी जगह से कुछ थोड़ा-सा उजेला आता था। वहाँ जंगली जानवरों को मनुष्यों का कदापि सहवास न रहने के कारण कुछ भी डर नहीं मालूम होता था। इस ‘पत्र-निर्मित स्वाभाविक छत्र' की छाया में सब छोटे-बड़े जीव-जन्तु आराम करने के लिए आश्रय ढूँढ़ रहे थे। सचमुच चारों ओर शान्ति देवता का साम्राज्य देख ऐसा जान पड़ता था कि वनश्री का यह निवास स्थान प्रत्यक्ष इन्द्र-भुवन ही है। सृष्टि की अपूर्व शोभा ऐसे ही स्थानों में दीख पड़ती है। इसके अवलोकन मात्र से धार्मिक मनुष्य के अंतःकरण में परमात्मा के विषय में आनन्द और प्रेम के तरंग उठने लगते हैं और अनीश्वरवादी के मन पर भी क्षण भर उसकी कुशलता का प्रभाव प्रकट हो ही जाता है।