पृष्ठ:माधवराव सप्रे की कहानियाँ.djvu/५१

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समझते हैं। पर सदाचारी और सुशील मनुष्य का मिलना बहुत ही कठिन है। कर्म, धर्म, संयोग से यदि ऐसा सत्पुरुष मिल जाय तो उसे परमात्मा की कृपा ही समझनी चाहिए।"

"शाहजादी, मैं यह नहीं कह सकता कि मुझमें यहाँ के अमीरों से बढ़कर कोई विशेष सद्‌गुण है। हाँ, इतना तो अलबत्ता कहूँगा कि यह संपत्ति और प्रतिष्ठा उन्हें अनायास करके ही प्राप्त हो गई है और मैं यद्यपि राजकुल में उत्पन्न हुआ हूँ, तो भी केवल अपने पराक्रम ही से इस योग्यता को पहुँचा हूँ। उन्हें अपनी बपौती का अभिमान है, और मुझे इस तलवार का।"

"ये अमीर,” जहीरा अत्यन्त अनुरागपूर्वक बोली, "मेरे नसीब में जो सुख-दुख लिखा है, वह तुम्हारे साथ जन्म भर भोगने के लिए बड़े संतोष से तैयार हूँ। परन्तु इसमें मेरे पिता की भी अनुमति होनी चाहिए। पिता की आज्ञा मुझे शिरसा मान्य है। उनकी इच्छा के विरुद्ध मैं कदापि कोई काम नहीं कर सकती। कन्या का यही धर्म है कि अपने माता-पिता की आज्ञा का पालन करे। जो कन्या धर्म के अनुसार नहीं चल सकती, वह शादी हो जाने पर, स्त्री-धर्म से कैसे रह सकेगी? जिसके हृदय में पितृ-प्रेम नहीं, उसके मन में पति-प्रेम कहाँ से आ सकता है?"

"मैं अभी बादशाह के पास जाकर सब हाल सुनाता हूँ। मुझे विश्वास है कि बादशाह मुझसे बहुत खुश हैं। परन्तु यह तो मानापमान का विषय है। कौन जानता है अपना सम्बन्ध उनको पसंद होगा या नहीं?"

इतना कहकर अमीर ने उसी दिन बादशाह से मुलाकात की और अपना हृदय-विचार उनको कह सुनाया। यह बात सुनते ही क्रोध