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पृष्ठ:माधवराव सप्रे की कहानियाँ.djvu/५९

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आजम
(Goldsmith's Miscellaneous Essays के आधार पर
रची हुई शिक्षा-विधायक एक कहानी)

वह पुरुष पहिले बहुत धनवान था। वह प्राणिमात्र से प्रीति और नम्रतापूर्वक बरताव रखता था। भूखों को अन्न, प्यासे को पानी और नंगे को वस्त्र देना, दुखित जनों के क्लेश निवारण करना और परोपकार के प्रत्येक सत्कर्मों में लगे रहना उसका स्वाभाविक काम था। इसी में उसने अपनी बहुमोल आयु और सब सम्पत्ति व्यय कर दी। जब वह इन धर्मकृत्यों को किया करता तो अपने मन में ऐसा कहता था कि––आज मैं जैसे इन लोगों को सहायता दे रहा हूँ, वैसे ही ये भी प्रसंग आने पर मुझको सहायभूत होंगे। परन्तु परमात्मा की इच्छा कौन जान सकता है? दैववशात् आजम प्रतिकूल काल के चक्कर में आन पड़ा, तब तो उसको अच्छी तरह अनुभव मिल गया कि यह संसार कैसा है। उसकी दीन दशा देख अब उसकी ओर कोई निहारता भी न था। जो लोग उसकी अच्छी अवस्था में निरन्त स्तुति करते थे, वे ही अब निन्दा करने लगे।

जो डरते थे, वे ही उपहास करने लगे; जो उसको सत्यवादी और सुशील कहते थे, वे ही ढोंगी और उड़ाऊ कहने लगे; जो उसके मित्र थे, वे केवल पराये और शत्रु-तुल्य हो गए। सारांश, उसकी सब स्थिति उलट-पलट हो गई और जब उसको यह मालूम हुआ कि अब मुझ पर कोई भी दया नहीं करता, तो उसके खेद और पाश्चात्ताप की परमावधि हो चुकी। फिर वह किसी एकान्त स्थान में बैठकर विचार करने लगा कि जिनके हृदय में पाप का भय, धर्म की श्रद्धा और नीति में