पृष्ठ:माधवराव सप्रे की कहानियाँ.djvu/६०

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पूज्य भाव नहीं है, उनके साथ क्षणमात्र भी रहना अच्छा नहीं। इनकी अपेक्षा बनचरों का समागम श्रेष्ठ है। परन्तु ऐसे खल, नीच, दुराचारियों का संग ठीक नहीं है। महात्माओं ने भी यही उपदेश किया है। कहा है कि 'वरं वनं व्याघ्रगजादि सेवितं' इसीलिए अब इन दुष्ट, पापी, कृतघ्न पुरुषों का साथ छोड़कर ऐसे निर्जन स्थान में रहना और शेष आयु अपनी आत्मा में संलग्न करना चाहिये जिससे अधर्मियों का स्पर्श भी न हो।

ऐसा सोचकर तारस नामक पर्वत के गगनचुम्बित शिखर पर जहाँ निविड़ अरण्य था, सिंहादि हिंस्र पशुओं के भयंकर शब्द सुनाई देते थे, प्रचंड वायु बड़े वेग से बहती थी, नदियों के प्रवाह की हृदयभेदक ध्वनि चहुँ और गूँज रही थी, अपनी जाति (मनुष्य) से द्वेष करने वाला आजम आ पहुँचा। वहाँ एक छोटी-सी गुहा थी। उसमें वह रहने लगा। उसमें हवा और पानी से बहुत बचाव होता था। दिन के समय बाहर इधर-उधर घूमकर बड़े कष्ट से कंद-मूल-फल इकट्ठा करता और किसी झरने के किनारे बैठकर अपनी प्यास बुझाया करता था। इस तरह अपना जीव बचाने के हेतु आवश्यक उपायों की रचना करके शरीर को सुख देने के लिए आनंद से सोता था। शेष समय इस बात के विचार और आनंद में बिताता था कि दुष्ट, कृतघ्न और अनुपकारी आदमियों से अब कुछ भी संबन्ध न रहा।

उस पर्वत-शिखर के नीचे एक बृहत् सरोवर था। उसमें पर्वत, वृक्ष, लता आदिक हर्षप्रद दृश्यों का प्रतिबिम्ब गिरने से अतीव रमणीय और शोभायमान दिखाई देता था। प्रकृति की यह अपूर्व शोभा देखने के लिए वह कभी-कभी वहाँ जाया करता था। जब वह ऊपर से नीचे उतरता तो चारों ओर विलक्षण सृष्टि-सौन्दर्य देखकर उसके मन में जो आनंद होता था, उसका वर्णन लेखनी से क्यों कर हो सकता है!