पृष्ठ:माधवराव सप्रे की कहानियाँ.djvu/६३

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तुझे यहाँ रहना हो तो खुशी से रह सकता है। परन्तु इस दुनिया का पूरा-पूरा हाल समझने में तुझे जो कठिनाई पड़ेगी, उसको दूर करने के लिये मैं सदैव तेरे साथ ही रहूँगा।" आजम यह सुनकर बहुत ही प्रसन्न हुआ कि यह जगत दुर्गुणरहित है। "वाह! परमेश्वर ने मुझ पर बड़ी भारी कृपा की, मेरी इच्छानुसार रहने के लिये मुझे ऐसा रमणीय स्थान उसने दिया है। धन्य है! परमेश्वर धन्य है तेरी..."

"बस-बस" देवदूत ने बीच ही में कहा––"पहिले अपने चारों ओर अवलोकन करके जो कुछ पूछना है, सो पूछ ले और फिर धन्यवाद देने में निमग्न होना।"

इस प्रकार बातें करते-करते वे दोनों एक गाँव में पहुँचे। वहाँ देखते हैं तो मार्ग अत्यन्त संकीर्ण, उसमें भी घास जमी हुई है। घर तीन-तीन हाथ के ऊँचे और झोंपड़ी पान-पत्ते से बनी हुई। न तो वहाँ खेत, न खलियान, न बाग है, न बाजार। लोगों में परस्पर हेल-मेल भी नहीं है। हिंस्र पशु बस्ती में इधर-उधर घूम रहे हैं। आनंद या उत्सव का एक शब्द भी सुनाई नहीं देता। यह चमत्कार देखकर आजम ने कहा कि "मेरी पहली सृष्टि और इसमें इतना ही अंतर मालूम देता है कि वह बहुत सुधरी, उत्तम और उन्नत दशा को पहुँची हुई है और यह तो अभी केवल बाल्यदशा, अर्थात् जंगली अवस्था में है। वहाँ जैसे बलवान जीव दुर्बलों पर आक्रमण कर अन्याय करते हैं, वैसे ही यहाँ भी करते हैं न। छिः-छिः क्या करना? यदि परमेश्वर मेरा कहना मानता तो उपद्रव करने वाले प्राणियों को मैं यहाँ से निर्मूल ही करा देता। इन दुखी-दुर्बलों पर मुझे बड़ी दया आती है। पर क्या करूँ? कोई किसी को त्रास न दे और इस जगत में सबल और दुर्बल जीव अपनी-अपनी जगह खुशी से रहें तो कितने आनंद की बात होगी।