पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/१०८

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तेंतर भाखिर वही हुआ जिसको आशका थो, जिसकी चिन्ता में घर के सभी को और विशेषतः प्रसूता पड़ी हुई थी। तीन पुत्रों के पश्चात् कन्या का जन्म हुआ। माता सौर में सूख गई, पिता वाहर आँगन में सूख गये, और पिता की वृद्धा माता सोर के द्वार पर सूख गई। अनर्थ, महाअनर्थ । भगगन ही कुशल नरें तो हो ! यह पुत्रो नहो, राक्षसी है। इस अमागिनी को इसी घर में आना था। माना ही था तो कुछ दिन पहले क्यों न आई । भगवान् सातवे शत्रु के घर भी तेतर का जन्म न दें। पिता का नाम था पण्डित दामोदरदत्त, शिक्षित आदमी से। शिक्षा विभाग ही में नौकर भी थे, मगर इस सरकार को कैसे मिटा देते, जो परम्परा से हृदय में जमा हुआ था, कि तीसरे बेटे की पीठ पर होनेवाली कन्या अभागिनी होती है, या पिता को लेती है या माता को, या अपने को । उन्की वृद्धा माता लगी नवजात कन्या को पानी पौ-पीकर कोसने, फुलमुही है, कलमुही ! न जाने क्या करने आई है यहाँ । किसी बॉम के घर जाती तो उसके दिन फिर जाते । दामोदरदत्त दिल मे तो घराये हुए थे, पर माता को समझने लगे -अम्मा तेतर-तर कुछ नहीं, भगवान् की जो इच्छा होती है वही होता है । ईश्नर चाहेंगे तो सब पुशल ही होगी, गानेवालियों को बुला लो, नहीं लोग कहेंगे, तोन बेटे हुए ती” कैसी फूली फिरती थी, एक बेटी हो गई तो घर में कुहराम मच गया। माता- अरे बेटा, तुम क्या जानो इन बातों को, मेरे सिर तो बीत चुकी है, प्राण नहीं में समाया हुमा है। तेतर ही के जन्म तुम्हारे दादा का देहान्त हुआ। तभी से तेतर का नाम सुनते ही मेरा कलेजा कांप उठता है । धामोदर-इस कष्ट के निवारण का भी तो कोई उपाय होगा? माता-- उपाय बताने को तोण्हुत हैं, पण्डितजी से पूछो तो कोई-न-कोई उपाय बता देंगे, पर इससे पछ होता नहीं। मैंने कौन से अनुष्ठान नहीं किये, पर पण्डित- श्री की तो मुट्टियां गरम हुई , यहाँ जो सिर पर पहना था वह पर हो गया। अभटके- के पति रह गये है, यजमान मरे या छिये, उनकी बला से, उनकी दक्षिणा मिलनी'