नैराश्य
११.
निरुपमा-तो क्या तुम लोगों पर बहुत प्रसन्न हैं क्या ?
मानन-दोनों वक यही भोजन करते हैं। यहीं रहते हैं।
निरुपमा-जब घर हो वैद्य तो महिए क्यों ? आज मुझे उनके दर्शन करा
-
आवज-भेंट क्या होगी?
निरुपमा-मैं किस लायक हूँ ?
भावज अपनी सपसे छोटो लएकी दे देना।
निरुपमा-चलो, गाली देती
भावज -अच्छा यह न सही, एक बार उन्हें प्रेमालिंगन करने देना।
निरुपमा-भाभी, मुम्कठे ऐसी हँसी करोगी तो मैं चलो जाऊँगी।
आवज -वह महात्मा बड़े रसिया है।
निरुपमा- तो चूल्हे में जायें। कोई दुष्ट होगा।
भावज-उनका आशीर्वाद तो इसी शर्त पर मिलेगा। वह और कोई में
स्वीकार ही नहीं करते।
निरुपमा-तुम तो यो बातें कर रहो हो मानों उनकी प्रतिनिधि हो ।
भावज-हो, वह यह सम विषय मेरे हो द्वारा तय किया करते हैं। मैं ही भेंट
लेती हूँ, मैं हो आशीर्वाद देती हूँ, मैं हो उनके हितार्थ भोजन कर लेती हूँ।
निरुपमा-तो यह कहो कि तुमने मुझे बुलाने के लिए यह होला निकाला है।
भावज नहीं, उसके साथ ही तुम्हें कुछ ऐसे गुर बता दूंगी जिससे तुम अपने
पर आराम से रहो।
इसके बाद दोनों सञ्चियों में खाना फूखी होने लगी। जन भावज चुर हुई तो
निरुपमा पोलो-और जो कहीं फिर कन्या ही हुई तो ?
भावन-तो श्या । कुछ दिन तो शाति और सुख से जोवन फटेगा। यह दिन
तो कोई लौटा न लेगा। पुत्र हुआ तो कहना हो झ्या, पुत्रो हुई तो फिर कोई नई
युक्ति निकालो जायगी । तुम्हारे घर के से माल के दुश्मनों के साथ ऐसो हो चालें
मलने में गुजारा है।
निरुपमा- मुझे तो सकोच मालूम होता है ।
भावन-त्रिपाठोजो को दो-चार दिन में पत्र-लिख देना कि महात्मानो के
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/११८
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