सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/११९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

११८ मानसरोवर - - 1 दर्शन हुए और उन्होंने मुझे वरदान दिया है। श्वर ने चाहा तो उसी दिन से तुम्हारी मान-प्रतिष्ठा दोने लगेगी। घमण्डीलाल दौड़े हुए आयेंगे और तुम्हारे ऊपर प्राण निछावर करेंगे। कम-से-कम साल भर तो चैन की वंशी बजाना। इसके बाद देखी जायगी। निरुपमा-पति से कपट करूं तो पाप न लगेगा ? भावष- ऐसे स्वार्थियों से कपट करना पुण्य है। ( ३ ) तीन-चार महीने के याद निरुपया अपने पर आई । घमण्डीलाल उसे विदा वराने गये थे। सलहन ने महात्माली का रग और भी चोखा कर दिया । बोली- ऐक्षा तो किसी को देखा ही नहीं कि इन महात्माजी ने वरदान दिया हो और वह पूरा न हो गया हो । हाँ, जिसका भाग्य ही घट जाय उसे कोई क्या कर सस्ता है। घमण्डीलाल प्रत्यक्ष तो वरदान और आशीर्वाद की उपेक्षा ही करते रहे, इन बातों पर विश्वास करना समाजदल संकोचजनक मालूम होता है, पर उनके दिल पर असर शहर हुआ। निरुपमा की खातिरदारियाँ होनी शुरू हुई। जब वह गर्भवती हुई तो सबके दिनों में नई-नई आशाएँ हिलोरें लेने लगी। सास जो उठते गालो और बैठते व्यंग्य से बातें करती थी, अब उसे पान की तरह फेरती-बेटी, तुम रहने दो, मैं ही रसोई बना लूंगी, तुम्हारा सिर दुखने लगेगा। कभी निरुपमा कलसे का पानी या कोई 'चारपाई उठाने लगती तो सास दौरती- बहू, रहने दो, मैं आगे हूँ, तुम कोई भारी चील मत उठाया करो। बछियों की मात और होती है, उन पर किसी बात का सर नहीं होता, लड़के तो गर्भ ही में मान करने लगते हैं। अब निरुपमा के लिए दूध का टीना किया गया, जिसमें बालक पृष्ट बार गोरा हो, घमण्डोलाल वस्त्राभूषणों पर उतारू हो गये। हर महीने एक न एक नई नीलगते । निरुपमा का जीवन इतना सुखमय कभी न था, उस समय भी नहीं, जब वह नवेली वधू थी। महीने गुजरने लगे। निरूपमा को अनुभूत लक्षणों से विक्षित होने लगा कि यह भी कन्या ही है, पर वह इस भेद को गुप्त रखती थी । सोच्ती, सावन की धूप है, इसका क्या भरोसा, जितनी ची धूप में सुखानी हो, सुखा लो, फिर तो घटा छायेगी, हो। बात-बात पर बिगड़ती। वह कभी इतनी मानशीला न थी। पर घर में कोई यूँ