दण्ड
१३५
सिनहा-या अब भी तुम्हें विश्वास नहीं आता।
‘जगत-हैं-है, पूरे हैं पूरे पांच इलार ! तो अब जाऊँ ? भाग जाऊँ ?
यह कहकर वह मुलिंदा लिये कई कदम लहखड़ाता हुआ चला, जैसे कोई
शराबी ; गौर तब धम से जमीन पर गिर पड़ा। मिस्टर सिनहा लपककर उठाने दौके
तो देखा, उसकी आँखें पथरा गई है और मुख पोला पड़ गया है/ बोले-पाके
पड़ेि, क्या कहीं चोट आ गई ?
पड़ेि ने एक बार मुंह खोला जैसे मरती हुई चिड़िया सिर लटकाकर चोंच खोल
देती है । जीवन का अन्तिम धागा भी टूट गया। ओठ खुले हुए थे और नोटों का
पुलिदा छाती पर रखा हुआ था। इतने में पन्नोजो भी आ पहुँचौ और शव देखकर
चौंक पड़ा।
पत्नी-इसे क्या हो गया ?
सिनहा-मर गया, और क्या हो गया
पत्नो-(सिर पीटकर ) मर गया । हाय भगवान् ! अब कहाँ जाऊँ ।
यह कहकर वह बँगले की ओर बड़ो तेजी से चली। मिस्टर सिनहा ने भी
नोट का पुलिंदा शव की छाती पर से उठा लिया और चले।
पत्नो -ये रुपये अब क्या होंगे।
सिनहा- किसी धर्म-कार्य में दे दूंगा।
-घर में मत रखना, खबरदार ! हाय भगवान् ।
?
(
दूसरे दिन सारे शहर में खपर मशहूर हो गई-जगत पांडे ने जट साहम पर
जान दे दो। उसका शव उठा तो हजारों आदमी साथ थे। मिस्टर सिनहा को
खुल्लम-खुल्ला गालियां दी जा रही थी।
सध्या-समय मिस्टर सिनहा कचहरी से भाकर मन मारे बैठे थे कि नौकरों ने
भाकर कहा- सरकार, हमको छुट्टी दी जाय ! हमारा हिसाब कर दीजिए। हमारो
बिरादरी के लोग धमकाते है कि तुम जट साहब को नौकरी करोगे तो हुक्का-पानी
बन्द हो जायगा।
सिनहा ने मलाकर कहा-कौन धमकाता है?
कहार-~किसका नाम बतायें सरकार ! सभी तो कह रहे हैं।
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/१३६
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