लेला
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यह कोई न जानता था कि लैश कौन है, कहां से भाई है और क्या करतो
है। एक दिन लोगों ने एक अनुपम सुन्दरी को तेहरान के चौक में अपने उन पर
हाफ्रिज की यह गजल झूम-झूमकर गाते सुना-
रसीद मुजदा कि ऐयामे ग़म न ख्वाहद सॉद,
चुनॉ न माँद, चुनी नीज हम त ख्वाद माद ।
और सारा तेहरान उस पर फिदा हो गया । यही लैला थी।
रेला के रूप-लालित्य की कल्पना पनी हो तो ऊषा को प्रफुल्ल लालिमा को
कल्पना कीजिए, जब नौल-गगन स्वर्ण-प्रकाश के रजित हो जाता है, बहार की कल्पना
कीजिए, जब बाग में रग-रग के फूल खिलते हैं और बुलबुले गाती है।
लैला के स्ना-लालित्य की कल्पना करनी हो, तो बस घण्टी ली अनवरत ध्वनि
को कल्पना कीजिए जो निशा की निस्तब्धता में ऊँटों की गरदनों में धनती हुई
सुनाई देती है, या उस बाँसुरी की ध्वनि की बी मध्याह्न की आलयमयो शान्ति में
किसी वृक्ष की छाया में लेटे हुए चरवाहे के मुख से निकलती है
जिस वक्त लैला मस्त होकर गाती थी,, उसके भुख पद एक स्वर्गीय आमा मल-
कने लगती थी। वह काव्य, सङ्गीत, सौरभ और सुषमा की एक मनोहर प्रतिमा थो,
जिसके सामने छोटे और बड़े, अमीर और गरीष सभी के सिर झुक जाते थे, सो.
गन्त्र-मुग्ध हो जाते थे, सो सिर धुनते थे। वह नस आनेवाले साध्य का सन्देश
सुनाती थी, जब देश में सन्तोष और प्रेम का साम्राज्य होगा, जग द्वन्द्व और सप्राम
का अन्त हो जायगा । वह राजा को जगातो और कहती, यह विलासिता कब तक,
पड ऐश्वर्य-भोग कब तक? नह प्रजा की सोई हुई अभिलाषाओं को जगाती, उनकी
इसन्त्रियों को अपने स्वरों से कम्पित कर देती। वह उन नमार बोरों को कोति
मुनाती जो दोनों को पुकार सुनकर विकल हो जाते थे, उन विदुषियों को महिमा
गातो जो कुळ मर्यादा पर मर मिटी थी। उसकी अनुरक ध्वनि सुनकर लोग दिलों
की भाम देते थे, तप जाते थे।
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/१४९
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