१५४ मानसरोवर था, और राज-भवन में प्रम का शान्ति-मय राज्य था, बादशाह और मलमा दोनों प्रजा के सन्तोष की कल्पना में मग्न थे। रात का समय था। नादिर और लैला अपने आरामगाह में बैठे हुए शतरंज को माजी खेल रहे थे। कमरे में कोई सजावट न थी, केवल एक जालिम बिछो हुई थी। नादिर ने लैला का हाथ पकड़कर कहा-बस, अब यह ज्यादती नहीं, तुम्हारी चाक हो चुकी । यह देखो, तुम्हारा एक प्यादा पिट गया। लैला-अच्छा, यह शह! आपके सारे पैदल रखे रह गये और 'बादशाह पर शह पड़ गई । इसी पर दावा था ! नादिर--तुम्हारे साथ हारने में जो मजा है वह जीतने में नहीं। लैला -अच्छा, तो गोया आप मेरा दिल खुश कर रहे है ? शह पचाइए, नहीं दूसरा चाल में मात होतो है। नादिर-(अर्दन देकर ) अच्छा, अब संभल जाना, तुमने मेरे पादशाह को चौहीन की है। एक बार मेरा फनी उठा तो तुम्हारे प्यादे का सफाया कर देगा। लैला-वसन्त को भी खबर है ! यह शह, माइए फर्जी । अम कहिए । अबको मैं न मानूं गो, कहे देती हूँ। आपको दो धार छोड़ दिया, अबकी हर्गिज न डोईंगी। नादिर-जन तक मेरे पास मेरा दिलशम (घोड़ा ) है, बादशाह को कोई ग्रम नहीं। लैला -अच्छा, यह शह 1 लाइए अपने दिलाराम को ! कचिए अब तो मात हुई ! नादिर-हाँ जानेमन, अब मात हो गई। जन मैं ही तुम्हारी अदाभों पर निसार हो गया, तम मेरा बादशाह कप बच सकता था। लैला-बातें न मनाइए, चुपके से इन फरमान पर दस्तखत कर दीजिए, जैसा आपने वादा किया था। यह कहकर लैला ने एक फरमान निकाला, जिसे उसने खुद अपने मोती के-से अक्षरों में लिखा था। इसमें अन्न का मायात कर घटाकर बाधा कर दिया गया था। लैला प्रजा को भूलो न थी। वह अब भी उनको हित-कामना में संलग्न रहती थी। नादिर ने इस शर्त पर फरमान पर दस्तखत करने का वचन दिया था कि लैला उसे शतरज में तीन बार मात करे । वह सिद्धहस्त खिलाड़ी था, इसे लैला जानती थी। पर यह शतरज की बाजी न थी, केवल प्रेम-विनोद था। नाक्षि मुमकिराते हुए
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