मुक्तिवन दाऊदयाल ने मुसकिराकर कहा-तुम्हारे मन में इस वक्त सासे बड़ी कौन-सो भारजू है? रहमान-यहो हजूर, कि आपके साये अदा हो जायें। सच कहता हूँ, हजूर, अल्लाह जानता है। दाऊ. ०-अच्छा तो समझ लो कि मेरे रुपये अदा हो गये। रहमान-अरे हजूर, यह कैसे समझ लूँ ! यहाँ न दूंगा, तो वहाँ तो देने पड़ेंगे? . दाऊ. नहीं रहमान, अब इसकी प्रिम मत फरो। मैं तुम्हें भाजमाता प्रा। रहमान-सरकार, ऐसा न कहें । इतना बोझ सिर पर लेकर न मरूंगा। दाऊ० -कैसा बोझ जो, मेरा तुम्हारे ऊपर कुछ भाता ही नहीं। भगर कुछ माता भी हो, तो मैंने माफ कर दिया, यहाँ भी, वहाँ भी। अब तुम मेरे एक के भी देनदार नहीं हो । असल में मैंने तुमसे जो कर्ज लिया था, वही अदा कर रहा हूँ। मैं तुम्हारा कर्जदार हूँ, तुम मेरे कर्जदार नहीं हो। तुम्हारो गऊ अब तक मेरे पास है । उसने मुझे कम-से-कम आठ सौ रुपये का द्ध दिया है । दो बछड़े नफे में अलग । अगर तुमने यह गऊ कसाइयों को दे दी होती, तो मुझे इतना फायदा क्योंकर होता? तुमने उस वक्त पाँव रुपये का नुसान उठाकर गऊ मेरे हाथ बेची श्री । तुम्हारी वह शराफत मुझे याद है । उस एहसान का बदला चुकाना मेरो ताकत से बाहर है । जब तुम इतने गरीष और नादान होकर एक गऊ को जान के लिए पाँच रुपये का नुकसान उठा सकते हो, तो मैं तुम्हारो सौगुनी हैसियत रखकर अगर चार-पांच सौ रुपये माफ कर देता हूँ, तो कोई बड़ा काम नहीं कर रहा हूँ। तुमने भले हो जानकर मेरे ऊपर कोई एहसान न किया हो, पर असल में वह मेरे धर्म पर एहसान था। मैंने भो तो तुम्हें धर्म के काम ही के लिए रुपये दिये थे। घस, हम- तुम दोनों बराबर हो गये। तुम्हारे दोनों वछो मेरे यहाँ हैं, जो चाहे, लेते जाओ, तुम्हारी खेतो के काम आयंगे। तुम सच्चे और शरीफ आदमी हो, मैं तुम्हारी मदद करने को हमेशा तैयार रहूँगा । इस वक्त भी तुम्हें रुपयों की जरूरत हो. तो जितने बाहो, ले सकते हो। रहमान को ऐसा मालम हुआ कि उसके सामने बोई फरिश्ता बैठा हुआ है। मनुष्य उदार हो, तो फरिश्ता है, और नीच हो, तो शेतान । ये दोनों मानो वृत्तयों
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