पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/१८४

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१८३ तोसरा-मारा, मारा अब मूजी को, अप पिलाकर छोड़ेंगे। चौथा- ऐसे मैख्वार है दिन-रात पिया करते है। हम तो सोते में तेरा नाम लिया करते हैं। पहला-तुम लोगों से न बनेगा, मैं पिलाना जानता हूँ। यह महाशय मोटे-ताजे आदमी थे। मेरा टेटुआ दमाया, और प्यालो मुंह से लगा दी । मेरो प्रतिज्ञा टूट गई । दीक्षा मिल गई ; मुराद पूरी हुई। किन्तु जनावटी क्रोध से बोला-आप लोग अपने साथ मुझे भो ले डूबे । दूसरा-मुबारक हो, मुबारक ! तीसरा-मुबारक, सुधारक, सौ वार मुबारक ! नवदीक्षित मनुष्य बड़ा धर्मपरायण होता है। मैं मध्या समय दिन-भर को वाग्वितदा से छुटकारा पाकर जब एकान्त में, अथवा दो-चार मित्रों के साथ बैठर प्याले-पर-प्याले चढ़ाता; तो चित्त उल्लसित हो उठता था । गत को निद्रा ख्य माती थी, पर प्रातःकाल अङ्ग-अङ्ग में पीड़ा होती, अंगड़ाइयाँ भाती, मस्तिष्क शिथिल हो जाता, यहो जी चाहता कि आराम पहाग पर लेटा रहूँ। मित्रों ने सलाह दो कि खुमारी उतारने के लिए सबेरे भो एक पेग पो लिग जाय, तो अति उत्तम है। मेरे मन में भी बात बैठ गई । मुंह-हाथ धोकर पहले सन्ध्या किया करता था। अब मुंह- हाथ धोकर चट अपने कमरे के एकान्त में बोतल लेकर बैठ जाता। मैं इतना जानता था कि नशीली चीज़ों का चसका बुरा होता है, थादमी धीरे-धीरे उनका दास हो जाता है। यहां तक कि वह उनके बगैर कुछ ज्ञाम ही नहीं कर सकता ; परन्तु ये बातें जानते हुए भो मैं उनके वशीभूत होता जाता था। यहाँ तक नौयत पहुँची कि नशे के मगैर मैं कुछ काम ही न कर सकता। जिसे आमोद के लिए मुँह लगाया था, वह साल ही भर में मेरे लिए जल और वायु की भांति अत्यन्त आवश्यक हो गई । अगर कभी किसी मुकदमे में बहस करते करते देर हो जातो, तो ऐसी थकावट चढ़ती थी, मानों मजिलों चला हूँ। उस दशा में घर आता, तो अनायास हो बात-बात पर झुक- लाता। कहाँ नौकर को डांटता, कहाँ बच्चों को पोटता, कहीं स्त्रो पर गरम होता। यह सब कुछ था, पर मैं कतिपय अन्य शराषियों की भांति नशा आते हो दून को न >