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मानसरोवर
झुककर रायसाहब को सलाम किया। भोलानाथ उनकी नम्रता से कुछ विस्मित-से हो
गये। बहुत दिन हुए जब लोग उन्हें सलाम किया करते थे। अब तो जहां जाते थे,
इसी उड़ाई जाती थी। रत्ला भी लज्जित हो गई । रायसाहब ने कातर नेत्रों से इधर-
उधर देखकर कहा- आपको यह जगह तो पसन्द आई होगी ?
आचार्य-जी हाँ, इससे उत्तम स्थान की तो मैं छल्पना ही नहीं कर सकता।
भोलानाथ-यह मेरा ही मँगला है। मैंने हो इसे बनवाया और मैंने ही इस्ले
बिगाड़ भी दिया।
रत्ना ने झपके हुए कहा-दादाजी, इन बातों से क्या फायदा
भोला-फायदा नहीं है बेटी, तो नुकसान भी नहीं । सज्जनों से अपनी विपत्ति
कहकर चित्त शान्त होता है । महाशय' यह मेरा ही बंगला है, या यों कहिए कि था।
५० हजार सालाना इलाके से मिलते थे । पर कुछ भादमियों की संगत में मुझे सटे का
चस्का पड़ गया । दो-तीन बार तामह-तोड़ पाजो हाथ आई, हिम्मत खुल गई, लाखों के
वारे-न्यारे होने लगे, किन्तु एक ही घाटे में सारी कसर निकल ठाई । बधिया बैठ गई।
सारी जायदाद खो बैठा । सोचिए पचीस लाख का सौदा था। कौड़ी चित्त पड़ती तो
आज इस बंगले का कुछ और ही ठाट होता, नहीं तो अब पिछले दिनों को याद कर-
करके दाथ मलता हूँ। मेरी रत्ना आपके पाने से बड़ा प्रेम है। जब देखो भाप
ही की चर्चा किया करती है । इसे मैंने बी० ए० तक पढ़ाया"
रत्ना का चेहरा शार्म से लाल हो गया। बोली, दादाजी, आचार्य महाशय मेरा
हाल जानते हैं, उनको मेरे परिचय की ज़रूरत नहीं। महाशय, क्षमा कीजियेगा,
पिताजी, उस घाटे के कारण कुछ अव्यवस्थित चित्त-से दो गये हैं। वह आपसे यह
प्रार्थना करने आये हैं कि यदि भापको कोई आपत्ति न हो तो वह कभी-कभी इस बँगले
को देखने भाया करें। इससे उनके आँसू पुछ जायेंगे। उन्हें इस विचार से सन्तोष
होगा कि मेरा कोई मित्र इसका स्वामी है। बस, यही कहने के लिए यह आपकी
सेवा में आये हैं।
आचार्य ने विन्यपूर्ण शब्दों में कहा -इसके पूछने की कोई जरूरत नहीं है । घर
आपका है, जिस बक्क जी चाहे शौक से आवे, बतिक आपको इच्छा हो तो आप इसमें
रह सकते हैं ; मैं अपने लिए कोई दूसरा स्थान ठोक कर वेगा।
रायसाहब ने धन्यवाद दिया भौर चले गये। वह दूसरे-तीसरे यहाँ जला आते
"
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/२१९
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