पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/२२०

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सौभाग्य के कोड़े २१९ भौर घण्टों रहते। रत्ना भी उनके साथ अवश्य आती, फिर वह एक बार प्रतिदिन आने लगे। एक दिन उन्होंने आचार्य महाशय को एकान्त में ले जाकर पूछा-~-क्षमा कीजि- येगा, आप अपने पाल-पचों को क्यों नहीं बुला लेते ? अकेले तो आपको बहुत कष्ट होता होगा। भाचार्य-मेरा तो अभी विवाह नहीं हुआ और न झाना चाहता हूँ। यह कहते हो आचार्य महाशय ने आँखें नोची कर ली। भोलानाथ-यह क्यों, विवाह से आपको क्यों द्वष है ? आचार्य कोई विशेष कारण तो नहीं बता सकता, इच्छा हो तो है। भोला-आप ब्राह्मण है। आचार्य का रग उपया। सशंक होश बोले-~-योरोप को यात्रा के बाद वर्णभेद नहीं रहता । जन्म ले चाहे जो कुछ हूँ, कर्म से तो शूद्र ही हूँ। भोलानाय...आपकी नम्रता को धन्य है, ससार में ऐसे सज्जन लोग भी पड़े हुए है। मैं भी कर्मों हो से वर्ण मानता हूँ। नम्रता, शोल, विनय, आचार, धर्मनिष्ठा, विद्याप्रेम, यह सब ब्राह्मणों के गुण है और मैं पाएको ब्राह्मण हो समझता हूँ। जिसमें यह गुण नहीं, वह ब्राह्मण नहीं, कदापि नहीं । रत्ना को आपसे बड़ा प्रेम है। आज तक कोई पुरुष उसको आँखों में नहीं जैचा, किन्तु आपने उखे वशीभूत कर लिया। इस धृष्टता को क्षमा कीजियेगा, आप के माता-पिता आचार्य-भेरे माता-पिता तो आप हो है। जन्म किसने दिया, यह मैं स्वयं नहीं जानता । मैं बहुत छोटा था, तभी उनका स्वर्गवास हो गया। रायसाहर -आह ! वह आज जोवित होते तो आपको देखकर उनको गज भए की छाती होती। ऐसे सपूत बेटे कहाँ होते हैं। इतमे में रत्ना एक कागज लिये हुए आई और रायसाहब से बोली-दादाजी, आचार्य महाशय काव्य-रचना भी करते हैं, मैं इनको,मेज़ पर से यह उठा लाई हूँ। सरोजनी नायडू के सिवा ऐसो कविता मैंने भौर कहीं नहीं देखी। आचार्य ने छिपी हुई निगाहों से एक घार रत्ना को देखा और मेंपते हुए बोले- यौही कुछ लिख गया था। मैं काव्य-रचना क्या जाने ?