रत्ना
रत्ना
रहे हैं । किन्तु अवसर नहीं मिलता । रत्ना ज्योंही सामने आ जाती है, वह मत्रमुग्ध से
हो जाते हैं। बाग में रोने कौन जाता है, रोने के लिए अंधेरी झोठरी हो चाहिए।
इतने में रत्ना मुमकिरातो हुई कमरे में पाई । दीपक को ज्योति मन्द पड़ गई ।
आमार्य ने मुसकराकर कहा-अब चिराय गुल कर दूँ न ।
रत्ना बोली- क्यों, क्या सुम्ससे शर्म आती है।
आचार्य-हां, वास्तव में शर्म आती है।
रत्ना-इसलिए कि मैंने तुम्हें जीत लिया ?
आचार्य-नहीं, इसलिए कि मैंने तुम्हें धोखा दिया ।
रत्ना--तुममें धोखा देने की क्षति नहीं है।
आचार्य ---तुन नहीं जानती । मैंने तुम्हें बहुत बड़ा धोखा दिया है।
-सब जानती हूँ।
आचार्य-जानती हो मैं कौन हूँ ?
खुछ जानती हूँ। बहुत दिनों से जानती हूँ। जन हम तुम दोनों इसी
-गणीचे में खेला करते थे, मैं तुमचो मारतो धो और तुम रोते थे, मैं तुमको अपनी
जूटी मिठाइयां देतो थी और तुम दौड़कर लेते थे, तब ओ मुझे तुमसे प्रेम था, हां,
वह दया के रूप में व्यक होता था।
आचार्य ने चकित होकर कहा-रत्ना, यह जानकर भी तुमने...
रना-हाँ जानकर हो । न जानतो तो शायद न करतो।
आचार्य-यह वही चारपाई है।
रत्ना-और मैं घाते में।
भाचार्य ने उसे गले लगाकर कहा---तुम क्षमा को देवो हो।
रत्ना ने उत्तर दिया- मैं तुम्हारी चेरी हूँ।
आचार्य-रायसाहब भी जानते हैं ?
रत्ना-नहीं, उन्हें नहीं मालूम है। उनसे भूलकर भी न कहना, नहीं तो वह
आत्मघात कर लेंगे।
आचार्य-वह कोड़े अभी तक याद हैं।
रत्ना-अत पिताजी के पास उसका प्रायश्चित्त करने के लिए कुछ नहीं रह गया।
क्या अब भी तुम्हें सतोष नहीं हुआ ?
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/२२३
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