सौभाग्य के कौड़े २२१ । आचार्य भूमि को और ताकते रहे, कुछ न बोले। रायशाहब-मेरी अवस्था तो आपको मालूम हो है। फुश कन्या के सिया और किसी योग्य नहीं हूँ । रत्ना के सिवा और कौन है, जिसके लिए उठा रखता। भाचार्य महाशय विचारों में मग्न थे। रायसाहन-टना को आप स्वय जानते हैं। आपसे उपकी प्रशसा करनी व्यर्थ है । वह अच्छी है या बुरी है, उसे पापको स्वीकार करना पड़ेगा। आचार्य महाशय की आँखों से आंसू बह रहे थे। रायसाहब-मुझे पूरा विश्वास है कि आपको ईश्वर ने उसी के लिए यहाँ भेजा है। मेरी ईश्वर से यहो याचना है कि तुम दोनों का जीवन सुख से स्टे । मेरे लिए इससे ज्यादा खुशी को और कोई बात नहीं हो सकती। इस कर्तव्य से मुक्त होकर इरादा है कुछ दिन भगवत् भजन करूँ । गौण रूप से आप हो उस फल के लो अधिकारी होंगे। भाचार्य ने अवरुद्ध कण्ठ से कहा--महाशय आप मेरे पिता तुल्य हैं, पर इस योग्य कदापि नहीं हूँ। रायसाहब ने उन्हें गले लगाते हुए कहा-बेठा, तुम सर्वगुण सम्पन्न हो । तुम समाज के भूषण हो। मेरे लिए यह महान गौरव की बात है कि तुम पाऊँ । मैं भाज तिथि आदि ठीक करके कल आरको सूचना दूंगा। यह कहकर रायसाहप उठ खड़े हुए। आचार्य कुछ कहना चाहते थे, पर मौका न मिला, या यों कहो हिम्मत न पढ़ो। इतना मनोबल न था, घृणा सहन करने को इतनी शक्कि न थी। मैं -जैसा दामाद विवाह हुए महीना भर हो गया। रत्ना के आने से पतिगृह उजाला हो गया है और पति-हृदय पवित्र । सागर में कमल खिल गया। रात का समय था। भाचार्य महाशय भोजन करके लेटे हुए थे, उसी पलग पर जिसने किसी दिन उन्हें घर से निकलवाया था, जिसने उनके भाग्यचक्र को परिवर्तित कर दिया था। महोना भर से वह अवसर हूँढ़ रहे हैं कि वह रहस्य रत्ना से वतला हूँ। उनका सस्कारों से दबा हुआ हृदय यह नहीं मानता कि मेरा सौभाग्य मेरे गुणों ही का अनु. गृहात है। वह अपने रुपये को भट्ठी में पिघला कर उसका मूल्य जानने को चेष्टा
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