नागसरापर
मानव-संग्राम का भीषण दृश्य उपस्थित हो गया। एक पहर तक हाहाकार मचा
रहा। कभी एक प्रबल होता था, कभी दूसरा। अग्नि-पक्ष के योद्धा मर-मरकर जी
उठते थे, और द्विगुण शक्ति से, रणोन्मत्त होकर, शस्त्रप्रहार करने लगते थे। मानव-
पक्ष में जिस योद्धा की छोति सबसे उज्ज्वल थी, वह बुद्धु था। बुद्ध कमर तक
धोती चढ़ाये, प्राण हथेली पर लिये, अग्निशशि में कूद पड़ता था, और शत्रुओं को
परास्त करके, बाल बाल बचकर, निकल आता था। अन्त में मानव-दल को विजय
हुई ; चिन्तु ऐसी विषय जिस पर हार भी हँसती। गाँव-भर की अख जलकर भस्म
हो गई, और ऊस के साथ सारी अभिलाषाएँ भी भस्म हो गई।
( ३ )
आग किसने लगाई यह खुला हुआ भेद था ; पर किसो को कहने का साहस
न था। कोई सबूत नहीं। प्रमाणहीन तर्क का मूल्य हो क्या । झींगुर को घर से
निकलना मुश्किल हो गया। जिधर जाता, ताने सुनने पड़ते। लोग प्रत्यक्ष कहते
थे-यह आग तुमने लगवाई। तुम्ही ने हमारा सर्वनाश किया। तुम्ही मारे
घमण्ड के धरती पर पैर न रखते थे। आप-के-आप गये, अपने साथ गाँव भर को
डुबो दिया। बुद्धू को न छेड़ते, तो आज क्यों यह दिन देखना पड़ता! नींगुर
को अपनी बरबादी का इतना दुःखे न था, जितना इन जली-कटी बातों का ! दिन-भर
घर में बैठा रहता । पूस का महोना आया। वहाँ धारी रात कोल्हू चला करते थे,
गुड़ को सुगन्ध उपती रहतो थो, मट्ठियाँ जलतो रहती थीं और लोग भट्ठियों के
सामने बैठे हुका पिया करते थे, वहाँ सम्माटा छाया हुआ था।
ठण्ड के मारे लोग
साम ही से किवाड़े बन्द करके पड़ रहते और माँगुर को कोसते। माघ और
भी कष्टदायक था। ऊख केवल धनदाता ही नहीं, किसानों का जोवनदाता भी है।
उसी के सहारे किसानों का जादा करता है। गरम रस पोते हैं, ऊख की पत्तियां
तापते हैं, उसके भगोड़े पशुओं को खिलाते है। गांव के सारे कुत्ते जो रात को
भट्ठियों की राख में सोया करते थे, तृण्ड से मर गये। कितने ही जानवर चारे के
अभाव से चल बसे। शोत का प्रकोप हुआ और सारा गांव खाँसो-बुखार में
प्रस्त हो गया । और यह सारी विपत्ति झींगुर की करनी थौ-अभागे, हत्यारे
झोंगुर की।
झीगुर ने सोचते सोचते निश्चय किया कि वुद्ध को दशा भी अपनी हो-सो
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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/२३३
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