मुक्ति-मार्ग . मेघ दल का सहार करके विजय गर्व से बोला-अब सोधे चले जाभो ! फिर इधर से आने का नाम न लेना। बुद्धू ने भाहत भेड़ों की ओर देखते हुए कहा-मंगुर, तुमने यह अच्छा काम नहीं किया। पछताभोगे। ( २ ) केले का काटना भी इतना आसान नहीं, जितना किसान से बदला लेना। उसकी सारी कमाई खेतो में रहती है, या चलिहानों में। जितनी हो दैविक भौर भोतिक आपदाओ के बाद कहो अनान घर में आता है। और, जो कहाँ इन आपदामों के साथ विद्रोह ने भी सन्धि कर ली, तो बेचारा किसान यही का नहीं रहता। झीगुए ने घर आकर दूसरों से इस सग्राम का वृत्तान्त कहा, तो लोग समझाने लगे- झींगुर, तुमने बड़ा अनर्थ किया। जानकर अनजान यनते हो। बुद्ध को जानते नहीं, कितना झगडालू भादमी है। आप भी कुछ नहीं विगहा । जाकर उसे मना को। नहीं तो तुम्हारे साथ सारे गाँव पर आफत आ पायगो । मोंगुर को समझ में बात आई। पछताने लगा कि मैंने कहाँ से-कहाँ उसे रोका। अगर भेड़ें थोड़ा-बहुत चर हो जातो, तो कौन मैं उजला जाता था। वास्तव में इम किंवानों का कल्यान दबे रहने में हो है। ईश्वर को भी हमारा सिर उठाकर चलना अच्छा । नहीं लगता। जी तो वुद्धू के घर जाने को न चाहता था, किन्तु दूसरों के आग्रह से मजबूर होकर चला अगहन का महीना था, कुहरा पड़ रहा था। चारों ओर अन्धकार छाया हुआ था। गांव से बाहर निकला हो था कि सहसा अपने अख के खेत की और अग्नि को ज्वाला देखकर चौंक पड़ा। छातो धड़कने लगो। खेत में भाग लगी हुई थी। बेतहाशा दौसा। मनाता जाता था कि मेरे खेत में न हो। पर ज्यों-ज्यों समीप पहुँचता था, यह आशामय भ्रम शान्त होता जाता था। वह अनर्थ हो ही गया, जिसके निवारण के लिए वह घर से चला था। हत्यारे ने आग लगा हो दी, और मेरे पीछे सारे गाँव को चौपट किया। उसे ऐसा जान पड़ता था कि वह खेत आज बहुत समीप आ गया है, मानों बोच के परती खेतों का अस्तित्व हो नहीं रहा। अन्त में जव वह खेत पर पहुंचा, तो आग प्रचण्ड रूप धारण कर चुकी थी। भगुर ने 'हाय-हाय' मचाना शुरू किया। गांव के लोग दौड़ पड़े और खेतों से अरहर के पौधे उखाड़-उखाड़कर आग को पोटने लगे। भग्नि- ।
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