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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/२३५

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.. रहता है । यहाँ तक कि कभी वह अपना विराट् आकार समेटकर उसे काय के चन्द भक्षरों में छिपा लेती है। कभी-कभी तो मनुष्य को जिह्वा पर जा बैठती हैं ; आकार का लोप हो जाता है। किन्तु उनके रहने को बहुत स्थान की ज़रूरत होती है। वह आई, और घर बढ़ने लगा। छोटे घर में उनसे नहीं रहा जाता । बुधू का घर भी बढ़ने लगा। द्वार पर बरामदा डाला गया, दो को जगह छः कोठरियों बनवाई गई। यो कहिए कि मकान नये सिरे से बनने लगा। किसी किसान से लकड़ी मांगी, किसी से खपरों का आवा लगाने के लिए उपळे, किसी से नौस और किसी के सरकंडे । दीवार को उठवाई देनी पड़ी। वह भी नकद नहीं ; भेड़ों के बच्चों के रूप में । लक्ष्मी का यह प्रताप है। सारा काम बेगार में हो गया। मुफ्त में अच्छा खासा घर तैयार हो गया। गृहप्रवेश के उत्सव की तैयारियां होने लगी। इधर झींगुर दिन-भर मजदूरी करता, तो कहीं आधा पेट अन्न मिलता। बुद्धू के घर कंचन बरस रहा था । मींगुर जलता था, तो क्या बुरा करता था ? यह अन्याय किससे सहा जायगा? एक दिन वह टहलता हुआ चमारों के टोले की तरफ चला गया। हरिहर को पुकारा । हरिहर ने आकर गम-राम' को, और चिलस भरी। दोनों पोने लगे। यह चमारों का मुखिया बड़ा दुष्ट आदमी था। सब किसान इससे घर-थर कापते थे। मीगुर ने चिलम पीते-पीते कहा-आजकल फाग-बाग नहीं होता क्या ? सुनाई नहीं देता। हरिहर-फाग क्या हो, पेट के धन्धे से छुट्टो ही नहीं मिलती । कहो, तुम्हारी आजकल कैसी निभती है ? झींगुर-क्या निभती है । नक्टा जिया बुरे हाल । दिन-भर कल में मजदूरी करते हैं, तो चूल्हा जलता है। चाँदी तो आजकल बुद्धू की है। रखने को ठौर नहीं मिलता। नया घर बना, भेड़ें और ली हैं। अा गृहीपरबेत को, धूम है । सातों गांवों में सुपारी जायगी। हरिहर-लच्छिमी मैया आती हैं, तो आदमी की मांखों में सोल आ जाता है। पर उसको देखो, धरती पर पैर नहीं रखता । बोलता है, तो ऐंठ हो कर बोलता है। मागुर-क्यों न ऐंठे, इस गांव में कौन है उसको टक्कर का! पर यार, यह भनौति तो नहीं देखी जाती । भगवान् दे तो सिर झुकाकर चलना चाहिए। यह नहीं