मानसरोवर थी। आज प्याला छलक पड़ा। यह प्रश्न सुनकर कुछ बौखला-से गये, बगलें झोंकने लगे, खीसे निकालकर बोले-घर संभालने के लिए, गृहस्थी का भार उठाने के लिए, और नहीं क्या भोग-विलास के लिए ? घरनी के बिना यह घर आपको भूत का डेरा- सा मालूम होता था। नौकर-चाकर घर की सम्पत्ति उड़ाये देते थे। जो चीज़ जहाँ पड़ो रहती थी, वहीं पड़ी रहती थी, कोई उसको देखनेवाला न था। तो अब मालूम शुआ कि मैं इस घर की चौकसो करने के लिए लाई गई हूँ। मुझे इस घर को रक्षा करनी चाहिए और अपने को धन्य समझना चाहिए कि यह सारी सम्पत्ति मेरी है। मुख्य वस्तु संपत्ति है, मैं तो केवल चौकीदारिन हूँ । ऐसे घर में आज ही आग लग जाय । अब तक तो मैं अनजान में घर की चौकसो करती थी, जितना वह चाहते हैं उतना न सही, पर अपनी बुद्धि के अनुसार अवश्य करती थी। आज से किसो चोज को भूलकर भी छूने की कसम खातो हूँ। यह मैं जानती हूँ कि कोई पुरुष घर की चौकसी के लिए विवाह नहीं करता और इन महाशय ने चिढ़कर यह बात मुझसे कही। लेकिन सुशीला ठोक कहती है, इन्हें स्त्री के बिना घर सूना लगता हे गा, उसी तरह जैसे पिजरे में चिड़िया को न देखकर पिंजरा सूना लगता है। यह है हम स्त्रियों का भाग्य ! ( ४ ) मालूम नहीं, इन्हें मुझ पर इतना सन्देह क्यों होता है। जब से नसीब इस घर में लाया है, इन्हें बराबर सन्देह-मूलक कटाक्ष करते देखतो हूँ । क्या कारण है ? जरा बाल गुँथवाकर बैठी और यह ओठ चबाने लगे। कही जाती नहीं, कहीं आती नहीं, किसी से बोलती नहीं, फिर भी इतना सन्देह ! यह अपमान असह्य है । क्या मुझे अपनी आबरू प्यारी नहीं ? यह मुझे इतनी छिछोरी क्यों समझते हैं, इन्हें मुझ पर सन्देह करते लज्जा भी नहीं आती ? काना आदमी किसी को हंसते देवता है तो समझता है, लोग मुझी पर हँस रहे हैं। शायद इन्हें भी यही वहम हो गया है कि मैं इन्हें चिढ़ाती हूँ। अपने अधिकार के बाहर कोई काम कर बैठने से कदाचित् हमारे चित्त की यही वृत्ति हो जाती है। भिक्षुक राजा को गद्दी पर बैठकर चैन की नींद नहीं सो सकता। उसे अपने चारों तरफ़ शत्रु-ही-शत्रु दिखाई देंगे। मैं सम- झती हूं, सभी शादी करनेवाले बुड्ढों का यही हाल है । भाज सुशीला के कहने से मैं ठाकुरजी की झांकी देखने जा रही थी। अब यह
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