रिको के रुपये . वह भी उसी आदमी के मुंह पर, जिससे वह बात कही गई हो ! यह मानवी दुर्बलता को पराकाष्ठा है। वह नईम, जिसका अन्दर और बाहर एक था, जिसके विचार और व्यवहार में भेद न था, जिसको वाणी आन्तरिक भावों का दर्पण थी, वह नईम, वह परल, आत्माभिमानी, सत्यभक्त नईम, इतना धूर्त, ऐसा मकार हो सकता है। क्या दासता के सांचे में ढलकर मनुष्य अपना मनुष्यत्व खो बैठता है ? क्या यह दिव्य गुणों के रूपान्तरित करने का यत्र है ! अदालत ने नईम को २० हजार रुपयों को डिनो दे दो। कैलास पर वज्रपात हो गया। . . इस निश्चय पर राजनीतिक ससार में फिर कुहराम मचा। सरकारी पक्ष के पत्रों ने कैलास को धूर्त कहा , जन-पक्षवालों ने नईम को शैतान बनाया। नईम के दुस्साहस ने न्याय की दृष्टि में चाहे उसे निरपराध सिद्ध कर दिया हो, पर जनता की दृष्टि में तो उसे और भी गिरा दिया। कैलास के पास सहानुभूति के पत्र और तार थाने लगे। पत्रों में उसकी निर्भीकता और सत्यनिष्ठा की प्रशसा होने लगो। जगह-जगह सभाए और जलसे हुए, और न्यायालय के निश्चय पर असन्तोष प्रकट किया गया ; किन्तु सूखे दादलों से पृथ्वी की तृप्ति तो नहीं होतो ? रुपये कहाँ से आवें, और वह भी एकदम से २० हजार ! आदर्थ-पालन का यही मूल्य है ; राष्ट्र-सेवा महँगा सौदा है । २० हजार ! इतने रुपये तो कैलास ने शायद स्वप्न में भी न देखें हों, और अब देने रहेंगे। कहाँ से देगा ? इतने रुपयों के सूद ले ही वह जीविका को चिन्ता से मुक्त हो सकता था। उसे अपने पत्र में अपनी विपत्ति का रोना रोकर चन्दा एकत्र करने से घृणा थी। मैंने अपने ग्राहकों की अनुमति लेकर इस शेर से मोरचा नहीं लिया था। मैनेजर की वकालत करने के लिए किसी ने मेरी गरदन नहीं पाई थी। मैंने अपना कर्तव्य समझकर ही शासकों को चुनौती दी। जिस काम के लिए मैं अकेला जिम्मेदार हूँ, उसका भार अपने प्राहकों पर क्यों डालें । यह अन्याय है । सम्भव है, जनता में आन्दोलन करने से दो-चार हजार रुपर हाथ आ जायें , लेकिन यह सम्पा- दकीय आदर्श के विरुद्ध है। इससे मेरी शान में बट्टा लगता है । दूसरों को यह कहने का क्यो अवसर दूं कि भौर के मत्थे फुलौडिया खाई, तो क्या बड़ा जग जीत लिया। अम जानते कि अपने वळ बूते पर गरजते ! निर्मी आलोचना का सेहरा तो मेरे सिर
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