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मानसरोवर
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यह वेश्याओं में, भाड़ों में और विलासिता के अन्य अंगों को पूति में उई जाती थी।
अंगरेज कंपनी का ऋण दिन-दिन बढ़ता जाता था। कमली दिन दिन भोगकर भारो
होती जाती थी। देश में सुव्यवस्था न होने के कारण वार्षिक कर भी न वसूल होता
था। रेज़ीट बार-बार चेतावनी देता था, पर यहाँ तो लोग विलासिता के नशे में
चूर थे। किसी के कानों पर जून रेंगती थी।
खैर, मौरसाहब के दवाखाने में शतरज होते कई महीने गुज़र गये। नये-नये
नक्शे हल किये जाते; नये नये किले बनाये जाते ; नित्य नई व्यूहरचना होती;
कभी-कभी खेलते-खेलते झोड़ हो जातो ; तू तू मैं मैं तक की नौबत आ जाती ; पर
बीघ्र ही दोनों मित्रों में मेलो जाता। कभी-कभी ऐसा भी होता कि बालो उठा दो
जाती ; मिरजाजो रूठकर अपने घर चले आते। मीरसाहब अपने घर में जा बैठते ।
पर रात-भर की निद्रा के साथ सारा मनोमालिन्य शांत हो जाता था। प्रातःकाल दोनों
मित्र दोवानखाने में आ पहुँचते थे ।
एक दिन दोनों मित्र बैठे हुए शतरज की दलदल में गोते खा रहे थे कि इतने
में घोड़े पर सवार एक बादशाही फौज का अफसर मीरसाइंव का नाम पूछता हुआ
मा पहुँचा । मौरसाहब के होश उड़ गये । यह क्या बला सिर पर आई। यह तलको
किस लिए हुई है ! अब खैरियत नही नजर आती। घर के दरवाजे बद कर लिये ।
नौकरों से बोले- कह दो, घर में नहीं हैं।
सवार-घर में नहीं, तो कहाँ हैं ?
नौकर-यह मैं नहीं जानता। क्या काम है :
सवार काम तुझे क्या रतलाऊँ ? हुजूर में तलबी है। शायद फौज के लिए
कुछ सिपाही मांगे गये है। जागीरदार है कि दिल्लगी! मोरचे पर जाना पड़ेगा, तो
भाटे-दाल का भाव मालूम हो जायगा !
नौकर-मच्छा, तो जाइए, कह दिया जायगा ?
सवार-कहने की बात नहीं है । मैं कल खुद भाऊँगा, साथ ले जाने का हुक्म
हुमा है।
सवार चला गया। मोरसाहम को आरमा काप ठो। मिरजानी से बोले-
कहिए अनाम, अब क्या होगा?
मिरवा-की मुसोक्त है। कहीं मेरो तलबो भी न हो।
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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/२६१
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