शतरंज के खिलाशे
मीर-
परते-करते उम्र शुज़र गई, गाज रईस बनने चले हैं। रईस बनना कुछ दिल्लगो
नहीं है।
मोर-क्ष्यों अपने बुजुर्गों के मुंह में कालिख लगाते हो-वे हो वावरची का
काम करते होंगे। यहाँ तो हमेशा नाशाह के दस्तरख्वान पर खाना खाते चले
भाये है।
मिरजा-अरे चल करकटे, बहुत बढ़-बढ़कर बातें न कर।
-लपान संभालिए, वरना बुरा होगा। मैं ऐसी बातें सुनने का आदो नहीं
है। यहां तो किसी ने आखें दिखाई कि उनको सर्दि निकालों । है हौसला
मिरजा-आप मेरा हौसला देखना चाहते हैं, तो फिर, आइए आज दो-दो
हाथ हो जाय, इधर या उधर !
मीर - तो यहाँ तुमसे दमनेवाला कौन है ?
दोनों दोस्तों से क्षमर से तलवारें निकाल ली। नवाबो जमाना था ; सभो तल-
वार पेशकन्दर, कटार वसरह मांधते थे। दोनों विलासो थे ; पर कायर न थे। उनमें
राजनीतिक भगवों का अध पतन हो गया था --यादशाह के लिए, बादशाहत के लिए
क्यों मरें। पर व्यक्तिगत वीरता का अभाव न था। दनों ने पैतरे बदले, तलवारें
चमकी, छपाठप को आवाजें भाई । दोनों जख्म तार गिरे, और दोनों ने वहाँ
तड़प-तड़पकर जान दे दो। अपने बादशाह के लिए जिनकी आँखों से एक बूंद
भासू न निकला, उन्हों दोनों प्राणियों ने शतरज के वज़ोर की रक्षा में प्राण
दे दिये।
अंधेरा हो चला था। बातो बिछी हुई थी। दोनों बादशाह आने-अपने सिंहा.
सनों पर प्ठे हुए मानों इन दोनों वोरों की मृत्यु पर रो रहे थे।
चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। खंडहर को टूटी हुई मेहगने, गिरी हुई
पोवार भोर धूर-धूसरित मोनारे इन लाशों को देखतो गौर सिर धुनतो थी।
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/२६६
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