पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/२७२

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वज्रपात मुहम्मदशाह-( उछलकर ) चलाह, तुमने खूप सोचा , वाकई तुम्हें खूप सूमो । हजरत इधर-उधर टटोलने के बाद अपना-सा मुँह लेकर रह जायेंगे। मेरे अमामे को कोन देखेगा ? इसो से तो मैंने तुम्हें लुकमान का खिताब दिया है। बस, यही तम रहा। कहो तुम परा देर पहले मा जाते, तो मुझे इतना दर्द-सर 1 -न.उठाना पड़ता। . . दूसरे ही दिन दोनों मादशाहों में सुलह हो गई। बोर नादिरशाह के कदमों पर गिर पड़ा, और अर्ज छो. |-अब इस इवतो हुई किश्ती को भाप हो पार लगा सकते हैं, वरना इसका अल्लाह हो बेली है ! हिन्दुओं ने सिर उठाना शुरू कर दिया है; मरहठे, राजपूत, सिख, सभी अपनी-अपनो ताकतों को मुकम्मिल कर रहे हैं। जिस दिन उनमें मेल मिलाप हुआ, उसी दिन यह नाव भंवर में पड़ जायगो, और दो-चार चकर खाकर हमेशा के लिए नीचे बैठ जायगो । नादिरशाद को ईरान से चले अरसा हो गया था। वहां से रोजाना बागियों की बगावत को खबरें आ रहो थी। नादिरशाह जल्द वहाँ लोट जाना चाहता था। इस समय उसे दिल्ली में अपनी सल्तनत कायम करने का अवकाश न था। सुलह पर रात्री हो गया । सन्धि-पत्र पर दोनों बादशाहों ने हस्ताक्षर कर दिये। दोनों बादशाहो ने एक ही साथ नमाज पढ़ो, एक ही दस्तरख्वान पर खाना खाया, एक ही हुक्का पिया, और एक दूसरे से गले मिलकर अपने-अपने स्थान को चले । मुहम्मदशाह खुश था। राज्य मच जाने को उतनो खुशो न थी, जितनी होरे के बचबाने को। मगर नादिरशाह होरा न पाकर भी दुःखी न था। सब हँस हँसकर बातें करता था, मानों शोल और विनय का साक्षात् अवतार है। प्रातःकाल है ; दिल्ली में नौमतें बज रही हैं । खुशो को महमिलें समाई जा रही हैं। तीन दिन पहले यहां रक को नदो बही थी। आज आनन्द को लहरें उठ रहो हैं। भाष नादिरशाह दिल्ली से रुखसत हो रहा है। मशफियो से मदे हुए ऊंटों को कतार शाही महल के सामने रवाना होने को तैयार खड़ी है। बहुमूल्य वस्तुएँ गालियों में लदी हुई हैं। दोनों तरफ को फौजे