नरक का मार्ग
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आह ! वह बुढ़िया जिसे मैं आकाश को देवी समझती थी, नरक की डाइन
निकलो । मेरा सर्वनाश हो गया। मैं अमृत खोजती थी, विष मिला, निर्मल स्वच्छ
प्रेम को प्यासी थी, गन्दे, विषाफ नाले में गिर पड़ी। वह दुर्लभ वस्तु न मिलनी थी,
न मिली । मैं सुशीला का-सा सुख चाहती थी, कुलटाओं की विषय-वासना नहीं। लेकिन
जीवन-पथ में एक बार उलटी राह चलकर फिर सीधे मार्ग पर भाना कठिन है।
लेकिन मेरे अधःपतन का अपराध मेरे सिर नहीं, मेरे माता-पिता और उस बूढ़े
पर है जो मेरा स्वामी बनना चाहता था। मैं यह पंक्तियां न लिखती, लेकिन इस
विचार से लिख रही हूँ कि मेरी आत्म-कथा पढ़कर लोगों की आंखें खुले; मैं फिर
कहती हूँ, अब भी अपनी बालिकाओं के लिए मत देखो धन, मत देखो जायदाद,
मत देखो कुलीनता, केवल वर देखो। अगर उसके लिए जोड़ का घर नहीं पा सकते
तो लड़की को क्यारी रख छोड़ो, बाहर देकर मार डालो, गला घोंट डालो, पर
किसी बूढे खूसट से मत ब्याहो । स्त्री सब कुछ सह सकती है, दारुण से दारुण दुःख,
बड़े से बड़ा संकट , अगर नहीं सह सकती तो अपने यौवन-काल की उमगों का
फुचला जाना।
रही मैं, मेरे लिए अब इस जीवन में कोई आशा नहीं। इस अधम दशा को
भी मैं उस दशा से न बदलूंगी, जिससे निकलकर आई हूँ !
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/३०
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