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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/२९

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१९८ मानसरावर बुढ़िया-तुम्हारे नसीबों में तो अभी जिन्दगी के बड़े-बड़े सुख भोगने लिखे है। अंधेरी रात गुज़र गई, आसमान पर सुबह की रोशनी नजर आ रही है। मैंने हँसकर कहा-अँधेरे में भी तुम्हारी आँखें इतनी तेज़ हैं कि नसीयों की लिखावट पढ़ लेती हैं ? बुढिया-आँखों से नहीं पढ़ती बेटा, अक्ल से पड़ती हूँ, धूप में चूहे नहीं सुफेद किये हैं । तुम्हारे बुरे दिन गये और अच्छे दिन आ रहे हैं। हंसो मत बेटा, यही काम करते इतनी उम्र गुज़र गई। इसी बुढ़िया को बदौलत जो नदी में कूदने जा रही थीं, वे आज फूलों की सेज पर सो रही हैं । जो जहर का प्याला पीने को तयार थीं, वे आज दृध की कुल्लियां कर रही हैं। इसीलिए इतनी रात गये निकलतो हूँ कि अपने हाथों किसी अभागिनी का उद्धार हो सके तो करूं। किसी से कुछ नहीं मांगती, भगवान् का दिया सब कुछ घर में हैं, केवल यही इच्छा है कि अपने से जहाँ तक हो सके, दूसरों का उपकार कर। जिन्हें धन की इच्छा है उन्हें धन, जिन्हें सन्तान की इच्छा है उन्हें सन्तान, अस और क्या कहूं, वह मन्त्र बता देती हूँ कि जिसकी जो इच्छा हो वह पूरी हो जाय । मैंने कहा- मुझे न धन चाहिए, न सन्तान, मेरो मनोकामना तुम्हारे वश की बात नहीं। बुढ़िया हंसी-बेटी, जो तुम चाहती हो वह मैं जानती हूँ, तुम वह चीज़ चाहती हो जो संसार में होते हुए स्वर्ग की है, जो देवताओं के वरदान से भी ज्यादा आनन्दप्रद है, जो आकाश कुसुम है, गूलर का फूल है और अमावस का चांद है। लेकिन मेरे मम्त्र में वह शक्ति है जो भाग्य को भी संवार सकती है। तुम प्रेम की प्यासी हो, मैं तुम्हें उस नाव पर बैठा सकती हूँ जो प्रेम के सागर में, प्रेम की तरङ्गों पर क्रीडा करती हुई तुम्हें पार उतार दे। मैंने उत्कण्ठित होकर पूछा~माता, तुम्हारा घर कहाँ है ? बुढ़िया-बहुत नज़दीक है बेटी, तुम चलो तो मैं अपनी आँखों पर बैठाकर के चलूँ। मुझे ऐसा मालूम हुआ कि यह कोई आकाश को देवी है। उसके पीछे-पीछे चल पड़ी।