बाबाजी का भोग
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सेर आटा था। यह गेहूँ का आटा षड़े यत्न से देवताओं के लिए रखा हुआ था।
रामधन कुछ देर खडा सोचता रहा, तब आटा एक कटोरे में रखकर बाहर आया,
मोर साधु की झोली में डाल दिया।
( २ )
महात्मा ने आठा लेकर कहा-बच्चा, अब तो साधु आज यही रमेंगे। कुछ
थोड़ी-सो दाल दे, तो साधु का भोग लग जाय ।
रामधन ने फिर आकर स्त्री से कहा। सयोग से शल घर में थी। रामधन ने
दाल, नमक, उपले जुटा दिये । फिर कुएं से पानी खींच लाया। साधु ने बड़ी विधि
से बाटियां मनाई . दाल पकाई और आलू झोली में से निकालकर भुरता बनाया ।
अब सब सामग्रो तैयार हो गई, तो रामधन से बोले-बच्चा, भगवान् के भोग के
लिए कौमी भर घो चाहिए । रसोई पविन न होगी, तो भोग कैसे लगेगा ?
रामधन-बाबाजी, घो तो घर में न होगा।
साधु-बच्चा, भगवान् का दिया तेरे पास बहुत है। ऐसो बात न कह ।
रामधन-महाराज, मेरे गाय-भैंस कुछ नहीं है, पीकहाँ से होगा ?
साधु-बचा, भगवान् के भंडार में सब कुछ है, जाकर मालकिन से कहो तो
रामधन ने जाकर स्त्री से कहा-घी मांगते हैं, मांगने को भौख, पर घो बिना
कौर नहीं धंसता।
स्त्रो-तो इसी दाल में से थोड़ी लेकर बनिये के यहां से ला दो। जब सम
किया है तो इतने के लिए उन्हें क्यों नाराज करते हो ?
घो आ गया। साधुजी ने ठाकुरजी को पिडो निकालो, घटी बजाई, और भोग
लगाने पैठे। बब तनकर खाया, फिर पेट पर हाथ फेरते हुए द्वार पर लेट गये।
थाली, बटलो और कन्छुली रामधन घर में मांजने के लिए उठा ले गया।
उस रात रामधन के घर चूल्हा नहीं जला। खाली दाल पकाकर ही पी ली।
रामधन लेटा, तो सोच रहा था-~-मुझसे तो यही अच्छे !
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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/३०६
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