विनोद विद्यालयों में विनोद की जितनी लीलाएँ होती रहती है, वे यदि एकत्र की जा सके, तो मनोरजक की बड़ी उत्तम सामग्री हाथ आवे। वहाँ अधिकांश छात्र जीवन की चिताओं से मुक्त रहते हैं। कितने ही तो परीक्षाओं की चिता से भी परो रहते हैं। वहाँ मटरगश्त करने, गपें उड़ाने और हंसी-मजाक करने के सिवा उन्हें कोई और काम नहीं रहता। उनका क्रियाशील उत्साह कभी विद्यालय के नाट्य-मच पर प्रष्ट होता है, बाभी विशेष उत्सवों के अवसर पर । उनका शेष समय अपने और मित्रों के मनोरंजन में व्यतीत होता है। वहाँ जहाँ किसी महाशय ने किसी विभाग में विशेष उत्साह दिखाया ( क्रिकेट, हालो, फुटवाळ को छोड़कर ), और वह विनोद का लक्ष्य बना । अगर कोई महाशय पडे धर्मनिष्ट हैं, सध्या और हवन में तत्पर रहते है; बिला नागा नमाने अदा करते हैं, तो उन्हें हास्य का लक्ष्क्ष बनने में देर नहीं लगती। अगर किसी को पुस्तकों से प्रेम है, कोई परीक्षा के लिए बड़े उत्साह से तैयारियां करता है, तो समझ लीजिए कि उसकी मिट्टी खराम करने के लिए कहीं- न-कहीं अवश्य पड्यंत्र रचा जा रहा है। सारांश यह कि वहाँ निन्द्र, निरीह, ग्युले दिन आदमियों के लिए कोई बाधा नहीं, उनसे लियो को शिकायत नहीं होती, लेकिन मुल्लाओं और पण्डितों की बड़ी दुर्गति होती है। महाशय चमधर इलाहाबाद के एक सुविख्यात विद्यालय के छात्र थे । एम० ए. पलास में दर्शन का अध्ययन करते थे। कितु जैसा विद्वज्जनों का स्वभाव होता है, इसी-दिल्लगी से कोसों दूर भागते थे। जातोयता के गर्व में चूर रहते थे। हिन्दू आचार-विचार की सरलता और पवित्रता पर मुग्ध थे। उन्हें नेकटाई, कालर, वास्कट आदि वस्त्रों से घृणा थी। सीधा-सादा मोठा कुरता और चमरौधे जूते पहनते । प्रात. काळ नियमित रूप से संध्या हवन करके मस्तक पर चंदन का तिलक भी लगाया करते थे। ब्रह्मचर्य के सिद्धान्तो के अनुसार सिर घुटाते थे; कितु लंकी चोटो रख छोकी थी। उनका प्यन था कि चोटी रखने में प्राचीन आर्य ऋषियों ने अपनी सर्वज्ञता का अचड परिचय दिया है। चोटी के द्वारा शरीर को अनावश्यक उष्णता बाहर निकल भाती और विद्युत् प्रवाह शरीर में प्रविष्ट होता है । इतना ही नहीं, शिखा को ऋषियों ।
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