३०८ मानसरोवर मगर दाई से पेट कहाँ छिप सकता है। तारनेवाले ताइ हो गये। यारों ने पण्डितजी को मुहब्बत की निगाह पहचान हो ली। मुंह मांगी मुराद पाई। बाई खिल गई। दो महाशों ने उनसे घनिष्ठता बढ़ानी शुरू कर दी। मैत्री को संघटित करने लगे। अब समझ गये दिइन पर हमारा विश्वास बम गण, शिकार पर वार करने का अवसर आ गया, तो एक रोज दोनों ने बैठकर लेडियों की शैली में पण्डितजी के नाम एक पत्र लिखा-'माई डियर चक्रधर, बहुत दिनों से विचार कर रही हूँ कि भापको पत्र लिवू, मगर इस भय से कि पिना परिचय के ऐसा साहस करना अनुचित होगा, अब तक जन्त करतो रही। पर' अब नहीं रहा जाता । आपने मुझ पर न जाने क्या जादू कर दिया है कि एक क्षण के लिए भी आपको सरत माखों से नहीं उतरती । आपकी सौम्य मूर्ति, प्रतिभाशाली मस्तक और साधारण पहनावा सदैव आँखों के सामने फिरा करता है । मुझे स्वभावतः आडम्बर से घृणा है। पर यहाँ सभी को कृत्रिमता के रंग में डूबा पाती हूँ। जिसे देखिए, मेरे प्रेम में अनुरक है । पर मैं उन प्रेमियों के मनोभावों से परिचित हूँ । के. सब-के-सब लंपट और शोहदे हैं। केवल आप एक ऐसे सज्जन हैं जिनके हृदय में मुझे सद्भाव और सदनुराग की मानक देख पड़ती है। बार-बार उत्कठा होती है कि मापसे कुछ बातें करती ; मगर आप मुमसे इतनी दूर बैठते हैं कि वार्तालाप का सुअवसर नहीं प्राप्त होता । ईश्वर के लिए कल से आप मेरे समीप ही बैठा कीजिए। और कुछ न सही तो आपके सामीप्य ही से मेरी आत्मा तृप्त होती रहेगी। इस पत्र को पढ़कर फाड़ डालियेगा, और इसका उत्तर लिखकर पुस्तकालय में तीसरी आलमारी के नीचे रख दीजिएगा। आपकी न्यौ । यह पत्र राक में डाल दिया गया और लोग उत्सुक नेत्रों से देखने लगे कि इसका क्या असर होता है । उन्हें बहुत लगा इन्तजार न करना पड़ा। दूसरे दिन कालेज में आकर पण्डितजी को लूसो के सन्निकट बैठने को फिक हुई । वे दोनों महा- शय, जिन्होंने उनसे आत्मीयता बढ़ा रखो थो, लूसी के निकट बैठा करते थे। एक का नाम था नईम और दूसरे का गिरिधर सहाय । चक्रधर ने जाकर गिरिधर से कहा- पार, तुम मेरो अगह जा बैठो। मुझे यहां बैठने दो।
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