विनोद 1 ने हिंदू-जातीयता का मुख्य लक्षण घोषित किया है। भोजन सदैव अपने हाथ से वगाते थे, और वह भी बहुत सुपाच्य और सूक्ष्म । उनको धारणा थी कि आहार का मनुष्य के नैतिक विकास पर विशेष प्रभाव पड़ती है । विजातीय वस्तुओं को हेय समझते थे। इसी क्रिकेट या हाकी के पास न फटकते थे । पाश्चात्य सभ्यता के तो वह शत्रु ही थे। यहाँ तक कि अगरेको लिखने-बोलने में भी उन्हे सोच होता था, जिसका परिणाम यह था कि उनकी अंगरेजो बहुत कमजोर थो, और वह उसमें सीवा- सा पत्र भी मुश्किल से लिख सकते थे। अगर उनको कोई व्यसन था, तो पान खाने का। इसके गुणों का समर्थन, और वैद्यक प्रन्यों से उनकी परिपुष्टि करते थे । विद्यालय के खिलाड़ियों को इतना धैर्य कहाँ कि ऐसा शिकार देखें और उस पर निशान न मारें। आपस में काना-फूसो होने लगी कि इस नगलो को सोधे रास्ते पर जाना चाहिए। कैसा पण्डित पना फिरता है। किसी को कुछ समझता ही नहीं। धपने सिवा सभी को जातीय भाव से होन समझता है। इसकी ऐसी मिट्टी पळोद करो कि सारा पाखण्ड भूल जाय । सयोग से भवसर भी अच्छा मिल गया। कालेज खुलने के थोड़े ही दिनों बाद एक ऐंग्लो-इण्डियन रमणी दर्शन-क्लास में सम्मिलित हुई। वह वि-कल्पित सभी उपमा दा आगार थी । सेव का-सा खिला हुआ रग, सुकोमल शरीर, सहास्य छषि, और उस पर मनोहर वेष-भूषा ! छात्रों को विनोद का ससाला हाय लगा। लोग इतिहास और भापा छोड़ छोड़कर दर्शन की कक्षा में प्रविष्ट होने लगे। सयकी आंखें उप्ती चन्द्रमुखी डी मोर चकोर को नाई लगो रहती थीं । सम उसके कृपा-कटाक्ष के अभिलाषी थे। सभी उसकी मधुर वाणो सुनने के लिए लाला- यित थे। किन्तु प्रकृति का जैसा नियम है । भाचारशील हृदयों पर प्रेम का जादः जन्म चल जाता है, तप वारा न्यारा करके ही छोड़ता है। और लोग तो आँखें हो सकने में मग्न रहा करते थे, किन्तु पण्डित चयर प्रेम-वेदना से विकल और सत्य अनुराग से उन्मत्त हो उठे। रमणी के मुख की ओर ताऊदे भो नेपते थे कि कहीं किसो को निगाह पर जाय, तो इस तिलक भोर शिखा पर फातियाँ उहने लगे। नए अवसर पाते, तो अत्यन्त विनन, सचेष्ट, भातुर और अनुरक नेत्रों से देख लेते ; किन्तु अखि चुराये हुए और सिर झुकाये हुए, कि कहीं अपना परदा न दीवार के कानों को खबर न हो जाय ।
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/३०८
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