मानसरावर - बखोल्छा, इन दोनों में से कोई एक शर्त मजूर कर लो। मैं मुआफ कर दंगो। लोगों को पूरा विश्वास था कि चक्रधर रुपयेवालो ही शर्त स्वीकार करेंगे । लूसी के सामने वह कभी कान पाकर उठा बैठो न करेंगे। इसलिए जब चक्रधर ने कहा- मैं रुपये तो न हूँगा, हाँ, बोस को जगह चालीस बार उठा-बैठी कर लूंगा तो सम लोग चकित हो गये । नईम ने कहा-यार, क्यों हम लोगों को पोल करते हो ? समे क्यों नहीं दे देते? चक्रपर रुपये बहुत खर्च कर चुका। अब इस चुन के लिए एक कानो कोड़ो तो खर्च करूँगा नहीं, दो सो तो बहुत होते हैं । इसने समझा होगा, चलकर मजे से दो सौ रुपये मार लाऊंगो और गुलछ, उकाऊंगो। यह न होगा। अब तक रुपये चर्च करके अपनी हंसो कराई है, अब बिना खर्च किये हंघी कराऊँगा। मेरे पैरों में दर्द हो, मला से, सब लोग इसे, बला से, पर इसको मुट्ठो तो न गरम होगी। यह कहकर चक्रधर ने कुरता उतार फेंका, धोतो ऊपर चढ़ा को, और बरामदे से नीचे मैदान में उतरकर उठ बैठी करने लगे। मुख मण्डल क्रोध से तमतमाया हुमा था, पर वा बैठके लगाये जाते थे। मालूम होता था, कोई पहलवान अपना करता दिखा रहा है । पण्डित ने अगर बुद्धिमत्ता का कभी परिचय दिया तो इम्रो अवसर पर। सब लोग खड़े थे, पर किसी के होठों पर हसी न थी। सब लोग दिल में कटे जाते' ये। यहाँ तक कि लूसो को भी सिर उठाने का साहस न होता था। सिर गाये बैठी थी। शारद उसे खेद हो रहा था कि मैंने नाइक यह योजना को ! बीस वार उठते-बैठते कितनी देर लगती है। पण्डित ने खूब उच्च स्वर से गिन- गिनकर बोस की संख्या पूर्ण को, और गर्व से सिर उठाये अपने कमरे में चले गये । लूसी ने उन्हें अपमानित करना चाहा था, उलटे उसी का अपमान हो गया। इस दुर्घटना के पश्चात् एक सप्ताह तक कालेज खुला रहा, किन्तु पण्डितजी को किसी ने हसते नहीं देखा। वह विमना और विरक भाव से अपने कमरे में बैठे रहते थे। लूसी का नाम प्रमान पर आते हो मल्ला पाते थे। इस साल की परीक्षा में पण्डितजी फेल हो गये, पर इस काळेन में फिर नोभाये, शायद भलीगढ़ चले गये।। -
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