पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/३३

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पैदा की चेष्टा करने लगा कि मेरा विवाह हो गया है। कई कई दिनों तक आशा को उसके दर्शन भी न होते । वह उसके कहकहे की आवाजें बाहर से आतो हुई सुनतो, मरोखे से देखती कि वह दोस्तों के गले में हाथ डाले सैर करने जा रहे हैं, और तड़पकर रह जातो। एक दिन खाना खाते समय उसने कहा-अब तो आपके दर्शन ही नहीं होते। क्या मेरे कारण घर छोड़ दीजिएगा क्या ? विपिन ने मुंह फेरकर कहा- घर ही पर तो रहता हूँ। आजकल जरा नौकरी को तलाश है, इसलिए दौड़-धूप ज्यादा करनी पड़तो है। आशा-किसी डाक्टर से मेरी सूरत क्यों नहीं बनवा देते ? सुनतो हूँ, आज- कल सुरत बनानेवाले डाक्टर विपिन-क्यों नाहक चिढ़ाती हो, यहाँ तुम्हें किसने बुलाया था ? आशा-आखिर इस मर्ज की दवा कौन करेगा ? विपिन- इस मर्ज की दवा नहीं है। जो काम ईश्वर से न करते बना, उसे भादमी क्या बना सकता है । आशा- यह तो तुम्ही सोचो कि ईश्वर को भूल के लिए मुझे दण्ड दे रहे हो। ससार में कौन ऐसा आदमी है जिसे अच्छो सूरत बुरी लगती हो, लेकिन तुमने किसी मई को केवल रूप-हीन होने के कारण वोरा रहते देखा है ? रूप-हीन लड़कियां भी. मां-बाप के घर नहीं बैठी रहती। किसी-न-किसी तरह उनका निर्वाह हो ही जाता है। उनका पति उन पर प्राण न देता हो, लेकिन दूध को मक्खो नहीं समभता । विपिन ने झुमलाकर कहा-क्यों नाहक सिर खाती हो, मैं तुमसे बहस तो नहीं कर रहा हूँ। दिल पर जन नहीं किया जा सकता, और न दलीलों का उन पर कोई असर पड़ सकता है। मैं तुम्हें कुछ कहता तो नहीं हूँ, फिर तुम क्यों मुझसे हुज्जत करती हो? आशा यह मिड़की सुनकर चली गई। उसे मालूम हो गया कि इन्होंने मेरी- ओर से सदा के लिए हृदय कठोर कर लिया है। ( ४ ) विपिन तो रोज़ सैर-सपाटे करते, कभी-कभी रात-रात गायब रहते, इधर आशा चन्ता और नैराश्य से घुलते-घुलते बीमार पड़ गई। लेकिन विपिन भूलकर भी .