पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/३६

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स्त्री और पुरुष आशा, ईश्वर ने मुझे गरूर को सजा दे दी। वास्तव में यह उसी बुराई का बदला है, जो मैंने तुम्हारे साथ की। अव तुम अगर मेरा मुंह देखकर घृणा से मुंह फेर लो तो मुझे तुमसे जरा भी शिकायत न होगी। मैं चाहता है कि तुम मुझसे उस दुर्व्यवहार का बदला लो जो मैंने तुम्हारे साथ किये हैं। भाशा ने पति को और कोमल भाव से देखकर कहा-मैं तो आपको अब भो उसी निगाह से देखती हूँ। मुझे तो आपमें कोई अन्तर नहीं दिखाई देता। विपिन-वाह, षन्दर का-सा मुंह हो गया है, तुम कहती हो, कोई अन्तर हो नहीं । मैं तो अप कभी बाहर न निकलूंगा। ईश्वर ने मुझे सचमुच दण्ड दिया है ! ( ६ ) बहुत यत्न किये गये, पर विपिन का मुंह न सोधा हुआ। सुख का वायां भाग इतना टेढ़ा हो गया था कि चेहरा देखकर डर मालूम होता था। हाँ, पेरों में इतनी शक्ति आ गई कि अब वह चलने-फिरने लगे। आशा ने पति की बीमारी में देवी की मनौती की थी। आज उसो पूजा का उत्सव था। मुहल्ले की स्त्रियाँ बनाव-सिंगार किये जमा थीं। गाना-प्रजाना हो रहा था। एक सहेली ने पूछा-क्यों आशा, अब तो तुम्हें उनका मुंह ज़रा भो अच्छा न लगता होगा। आशा ने गम्भीर होकर कहा--मुझे तो पहले से हों अच्छा मालूम होता है। 'चलो, बातें बनाती हो।' 'नहीं पहन, सच कहती हूँ, रूप के बदले मुझे उनकी आत्मा मिल गई जो रूप से कहीं बढ़हर है। विपिन कमरे में बैठे हुए थे। कई मित्र जमा थे । ताश हो रहा था। कमरे में एक खिड़की थी जो आँगन में खुलतो थी। इस वक वह बन्द थो। एक मित्र ने चुपके से उसे खोल दिया और शोशे से मांककर विपिन से कहा आज तो तुम्हारे यहाँ परियों का अच्छा, जमघट है। विपिन-बद कर दो। 'भजो, ना देखो तो, कसो कसो सरतें हैं। तुम्हें इन पभों में कौन सबसे अच्छो मालूम होती है ?