पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/५०

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निर्वासन मर्यादा- स्टेशन पर एक दुर्घटना हो गई । परशु-हाँ, यह तो मैं समझ हो रहा था । क्या दुर्घटना हुई ? मर्यादा -जब सेवक टिकट लेने जा रहा था, तो एक आदमो ने आकर उससे कहा, महाँ गोपीनाथ के धर्मशाला में एक बाबूजो ठहरे हुए हैं, उनको स्त्री खो गई है, उनका भला सा नाम है, गोरे-गोरे लम्बे-से खूबसूरत आदमी हैं, लखनऊ मकान है। भवाई टोले में। तुम्हारा हुलिया उसने ऐसा ठोक क्यान किया कि मुझे उन पर विश्वास आ गया। मैं सामने आकर बोलो, तुम बाबूजो को जानते हो ? वह हंसकर बोला, जानता नहीं हूँ तो तुम्हें तलाश क्यों करता फिरता हूँ। तुम्हारा बच्चा रो-रोकर हलाकान हो रहा है। सम औरतें कहने लगी, वलो जाओ, तुम्हारे स्वामोजो पबरा रहे होंगे। स्वयसेवक ने उससे दो-चार बातें पूछकर मुझे उसके साथ कर दिया। मुझे क्या मालूम था कि मैं किसी नर-पिशाच के हाथों में पड़ी जाती हूँ। दिल में खुश थी कि अब पासू को देखू गो, तुम्हारे दर्शन करेंगी। शायद इसो उत्सुकता ने मुझे असावधान कर दिया। परशुराम-तो तुम उस आदमी के साथ चल दो ? बह कौन था ? मर्यादा-क्या बतलाऊँ कौन था ? मैं तो समझतो हूँ, कोई दलाल था । परशुराम-तुम्हें यह भी न सूको कि उससे कहती, भाकर बाबूजो को भेज दो ? मर्यादाअदिन आते हैं तो बुद्धि भी तो भ्रष्ट हो जातो है! परशुराम---कोई भा रहा है। मर्यादा-मैं गुसलखाने में छिपी जाती हूँ। परशुराम-आओ भाभी, क्या अभो सोई नहों, दस तो बज गये होंगे। भाभीवासुदेव को देखने को जी चाहता था भैया, क्या सो गया ? परशुराम-हा, वह तो अभी रोते-रोते सो गया है। भाभो-कुछ मर्यादा का पता मिला ? अब पता मिले भी तो तुम्हारे किस काम को । घर से निकली हुई त्रिया थान से छूटो हुई घोड़ी है जिसका अछ भरोसा नहीं । परशुराम-कहाँ से कहाँ मैं उसे लेकर नहाने गया। भाभी-होनहार है भैया, होनहार | अच्छा तो मैं भी जातो हूँ। मर्यादा- ( बाहर आकर ) होनहार नहीं है, तुम्हारो चाल है। वासुदेव को प्यार करने के बहाने तुम इस घर पर अधिकार जमाना चाहतो हो।