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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/५७

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मानसरोवर N इसकी कद्र तो पश्चिम के लोग करते हैं। वहाँ मनोरंजन की सामप्रियां उतनी ही आवश्यक हैं जितनी हवा । अभी तो वे इतने प्रसन्न-चित्त रहते हैं, मानों किसी बात की चिन्ता ही नहीं। यहां किसी को इसका रस ही नहीं। जिन्हें भगवान् ने सामर्थ्य भी दिया है वह भी सरेशाम से मुंह ढापकर पड़े रहते हैं। सहेलियाँ कैलामी को यह गर्व-पूर्ण बति सनतों और उसको और भी प्रशसा करती। वह उनका आमान करने के आवेग में भाप ही हास्यास्पद बन जाती थी। पड़ोसियों में इन सैर-सपाटों की चर्चा होने लगी। लोक-सम्मति किसी को रिआ- यत नहीं करती। किसी ने सिर पर टोपी टेढ़ी रखी और पड़ोसियों को आँखों में खुषा, कोई जरा अकड़कर चला और पड़ोसियों ने अवाजे कसी। विधवा के लिए पूजा-पाठ है, तीर्थ-व्रत है, मोटा खाना है, मोटा पहनना है, उसे विनोद और विलास, राग और रंग को क्या ज़रूरत ? विधाता ने उसके सुख के द्वार बन्द कर दिये हैं। लड़की प्यारी सही, लेकिन शर्म और हया भी तो कोई चीज है। जब मां-बाप हो उसे सिर चढ़ाये हुए हैं तो उसका क्या दोष ? मगर एक दिन आँखें खुलेंगी अवश्य । महिलाएँ कहती, बाप तो मर्द है, लेकिन मां कैसी है, उसको जरा भी विचार नहो' कि दुनिया क्या कहेगी। कुछ उन्हीं की एक दुलारी बेटी थोड़े ही है, इस भांति मन बढ़ाना अच्छा नहीं। कुछ दिनों तक तो यह खिचड़ी आपस में पकती रहो। अन्त को एक दिन कई महिलाओं ने बागेश्वरी के घर पदार्पण किया। जागेश्वरों ने उनका बड़ा भादर-सत्कार किया। कुछ देर तक इधर-उधर की बातें करने के बाद एक महिला बोलो-महिलाएँ रहस्य की बातें करने में बहुत अभ्यस्त होतो हैं-बहन, तुम्ही मजे में हो कि हँसी- खुशी में दिन काट देती हो। हमें तो दिन पहाइ हो जाता है। न कोई काम, न धधा, कोई कहाँ तक बातें करे ? दूसरी देवी वे आंखें मटकाते हुए कहा-अरे, तो यह तो बदे की यात है। सभी के दिन हंसी-खुशो में कटें तो रोये कौन । यहाँ तो सुबह से शाम तक चको- चूल्हे हो से छुट्टी नहीं मिलती ; किसी बच्चे को दस्त आ रहे हैं तो किसी को ज्वर चढ़ा हुआ है । कोई मिठाइयों की रट लगा रहा है तो कोई पैसों के लिए महनामय मचाये हुए है। दिन-भर हाय-हाय बरते बोत जाता है। सारे दिन कठपुतलियों को भौति नाचती रहती हूँ।