पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

नैराश्य-लीक तीसरी रमणो ने इस कथन का रहस्यमय भाव से विरोध किया~यदे की बात नहीं है, वैसा दिल चाहिए । तुम्हें तो कोई राजसिंहासन पर बिठा दे तब भी तस्कीन न होगी। तब और भो हाय-हाय करोगी। इस पर एक वृद्धा ने कहा-नौज ऐसा दिल ! यह भी कोई दिल है कि घर में चाहे आग लग जाय, दुनिया में कितना ही उपहास हो रहा हो, लेकिन आदमी अपने राग-रग में मस्त रहे। वह दिल है कि पत्थर ! हम गृहिणो कहलाती हैं, हमारा काम है अपनी गृहस्थी में रत रहना ! आमोद-प्रमोद में दिन काटना हमारा काम नहीं । और महिलाओं ने इस निर्दय व्यग्य पर लज्जित होकर सिर चुका दिया । वे जागेश्वरी को चुटचियां लेनी चाहती थी, उसके साथ बिल्ली और चूहे को निर्दय कोड़ा करना चाहती थीं । आहत को तड़पाना उनका उद्देश्य था । इस खुलो हुई घोट ने उनके पर-पीड़न प्रेम के लिए कोई गुञ्जाइश न छोड़ो। तुरन्त बात पलट दी, और स्त्री-शिक्षा पर बहस करने लगों ; किन्तु जागेश्वरी को ताड़ना मिल गई। स्त्रियों के बिदा होने के बाद उसने जाकर पति से यह सारो ज्या सुनाई । हृदयनाथ उन पुरुषों में न थे जो प्रत्येक अवसर पर अपनी आत्मिक स्वाधीनता का स्वांग भरते हैं, धो को आत्म स्वातन्त्र्य के नाम से छिपाते हैं। वह सचिन्त भाव से बोले -तो थब क्या होगा? जागेश्वरी-तुम्हों कोई उपाय सोचो। हृदयनाथ -पड़ोसियों ने जो आक्षेप किया है वह सर्वथा उचित है। कैलासकुमारी के स्वभाव में मुझे एक विचित्र अन्तर दिखाई दे रहा है । मुझे स्वयं ज्ञात हो रहा है कि उसके मन-बहलाव के लिए हम लोगों ने जो उपाय निकाला है वह मुनासिब नहीं है। उनका यह कथन सत्य है कि विववाओं के लिए यह आमोद-विनोद वजित है । अब हमें यह परिपाटी छोड़नी पड़ेगी। जागेश्वरी-लेकिन कलासौ तो इन खेल-तमाशों के बिना एक दिन भी नहीं रह सकतो। हृदयनाथ-उसकी मनोवृत्तियों को बदलना पड़ेगा। शनैः शनैः यह विलासोन्माद शान्त होने लगा । वासना का तिरस्कार किया जाने लगा। पण्डितजी सध्या समय ग्रामोफोन न बजाकर कोई धर्म-प्रन्थ पढ़कर सुनाते।