सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

नैराश्य लोला है। इसका गौरव कहीं अधिक है। देखो, ऋषियों में दधीचि का जो यश है, हरिश्चन्द को जो कीर्ति है, उसकी तुलना और कहाँ की जा सकती है । संन्यास स्वार्थ है, सेवा त्याग है, आदि । उन्होंने इस कथन की उपनिषदों और वेदमत्रो से पुष्टि की । यहाँ तक की धीरे-धीरे कैलासी के विचारों में परिवर्तन होने लगा। पण्डितजी ने मुहल्ले- वालों की लड़कियों को एकत्र किया, पाठशाला का जन्म हो गया; नाना प्रकार के चित्र और खिलौने मंगाये गये । पण्डितजी स्वयं कैलासकुमारो के साथ लड़कियों को पढ़ाते । कन्याएँ शौक से आती। उन्हें यहाँ को पढाई खेल मालूम होती । थोड़े ही दिनो में पाठशाला की धूम हो गई, अन्य मुहल्लों को कन्याएं भी आने लगी। ( ४ ) केलासकुमारी को सेवा-प्रवृत्ति दिनोदिन तंत्र होने लगी। दिन-भर लड़कियों को लिये रहती, कमी पढाती, कभी उनके साथ खेलतो, कभी सोना-पिरोना सिखाती। पाठशाला ने परिवार का रूप धारण कर लिया। कोई लड़की बीमार हो जाती तो तुरन्त उसके घर जातो, उसको सेवा-शुश्रूषा करतो, गाकर या कहानियां सुनाकर उसका दिल बहलाती। पाठशाला को खुले हुए साल-भर हुआ था। एक लड़की को, जिससे वह बहुत प्रेम करती थी, चेचक निकल आई । कैलासो उसे देखने गई। मां-बाप ने बहुत मना किया, पर उसने न माना, कहा- तुरत लौट आऊंगी। लड़को की हालत खराब थी। कहाँ तो रोते-रोते ताल सूखता था, कहाँ कैलासो को देखते ही मानों सारे कष्ट भाग गये। फैलासी एक घण्टे तक वहाँ रही। लड़को बराबर उससे बातें करती रही। लेकिन जब वह चलने को उठी तो लड़को ने रोना शुरू किया । कैलासो मजबूर होकर बैठ गई। थोड़ी देर के बाद जब वह फिर उठी तो फिर लड़की को वही दशा हो गई। लड़की उसे किसी तरह छोड़ती ही न थी। सारा दिन गुज़र गया। रात को भी लड़की ने न माने दिया। हृदयनाथ उसे बुलाने को बार-बार आदमो भेजते, पर वह लड़की को छोड़कर न जा सकती। उसे ऐसी शका होती थी कि मैं यहां से चली और लडकी हाथ से गई। उसकी मां विमाता थी। इससे कैलासी को उसके ममत्व पर विश्वास न होता था। इस प्रकार वह तीन दिनों तक वहाँ रहो। आठों पहर बालिका के सिरहाने बैठी पखा मल्ती रहती। बहुत थक जाती तो दीवार से पोठ टेक लेती। चौथे दिन लड़की की हालत कुछ संभलतो हुई मालूम हुई तो वह भने।